Book Title: Charananuyoga Part 2
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 472
________________ ३७८ ] चरणानुयोग – २ अह पच्छा उद्दज्जन्ति, कम्मा णाणफला कडा । एवमस्सार अध्वानं मन्यः कम्म विभाग ॥ · २१. अप्राण परीस ७६०. निरदुर्गाम्म विरओ, मेहणाओ सुसंबुडो । नाभिजानामि, धम्मं कहलाण पावगं ॥ जो २२. सण परीसहे -- ७६१. नत्यि नृणं परे लोए अदुवा पवित्र मिति तापमादाय पडि पविजओ । एवं परि मे छन नि ॥ - उत्त. अ. २, गा ४२-४३ इड्डी वाषि तवस्सियो । निवितए ॥ सव्व परीसहजय निद्देसो ७६२. एए परोसा राज्ये जे मिलून विनेज्जा, अजिया अब जिया अनुवाद भविस्स । सं ते एवमाहं — (२१) नज्ञान- परीषह १७६०. मैंने व्यर्थ ही मैथुनादि से निवृत्ति और इन्द्रियों के दमन का प्रयत्न किया जबकि में अभी तक "धर्म कल्याणकारी है या दुखकर है" यह प्रत्यक्ष ज्ञान से नहीं जान पाया ( अर्थात् अभी तक मुझे कोई अवधिज्ञानादि प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हुआ | ) " तपस्या और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमा का पालन करता हूँ। इस प्रकार विशेष चर्या से विचरण करने पर - उत्त. अ. २, गा. ४४-४५ भी मेरा छद्मस्थ भाव दूर नहीं हो रहा है।" ऐसा खेद युक्त चिन्तन न करे । (२२) दर्शन-परीषद - १६१. "निरषय ही परदीक नहीं है, तपी की ऋद्धि भी नहीं है इसलिए संयम लेकर में ठगा गया हूँ" भिक्षु ऐसा चिन्तन न गो कासवेण पवेद्रया । पुट्ठो केणड कपटुई || जड़ कालुणियाणि कासिया, दवि सिद्विर्त विवाहाविया परीसह अपराजिनो मुणी७६२.रमेसणं समणं डागडियं सबस्गिणं । बहरा बुढा म पत्थए, अवि सुस्से ण य तं लभे जणा ॥ अज्ञान परीषह ॥ -उस. अ. २, ग्रा. ४६-४७ अड जीबिय णावसए. उत्त. अ. २. गा. ४८ जड शेवंति व पुत्तकारणा यो सम्मति न संत्तिए । जय ज्जाहि णं वंधिई परं । सूत्र ७५१-७६३ "अज्ञान रूप फल देने वाले ये कर्म उदय में आकर इसके बाद क्षीण हो जायेंगे ।" कर्म के विपाक को जानकर मुनि इस प्रकार आत्मा को आश्वासन दे (किन्तु प्रज्ञा (बुद्धि) की कमी का खेद न करे । } णो लांति ण संवित्तए । सू. सु. १, अ. २, उ. १, गा, १६-१८ "जिन हुए थे, जिन है और जिन होंगे ऐसा जो भी कहते हैं वे असत्य बोलते हैं" इस प्रकार भी भिक्षु चिन्तन न करे । सभी परीयह जीतने का निर्देश- ७६२. इन सभी परीषहों का काश्यप गोत्रीय भगवान महावीर ने प्ररूपण किया है, इन्हें जानकर, इनमें से किसी परीषह के द्वारा कहीं भी स्पृष्ट होने पर भुनि इनसे पराजित न हो । परीयों से अपराजित मुनि ७६३ मोक्ष की एषणा के लिए उत्थित, चारित्र आराधना आदि में स्थित तपस्वी अणगार की यदि उसके पुत्र अथवा वृद्ध वाता पिता पुनः घर में बने की प्रार्थना करें और वे प्रार्थना करते-करते थक जाये तो भी भिक्षु को अधीन नहीं कर सकते । यदि कौटुम्बिक उस श्रमण के पास आकर करुणाजनक शब्द बोले, पुत्र प्राप्ति के लिए रुदन करे फिर भी वे राग-द्वेष रहित संयम में तत्पर उस श्रमण को पुनः गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते यदि उस खमण को काम-भोग के लिए निर्म त्रित करे अथवा उसे बांध कर घर ले आये, परन्तु यदि वह असंयम जीवन की आकांक्षा नहीं करे तो उसे वे पुनः गृहवास में स्थापित नहीं कर सकते ।

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