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सूत्र ७६४-७६५
परीसहपराजिओ मुणी७६४ मेहति प्रमाणो,
पाहा तुम
माया पिया य सुता य मारिया
अग्ने अन्तेहि मुश्छिता,
सो पद जहाहि पोस ।
मोहं नंति नरा
दिसम सिह गाहिया
ते पाह पुणो पयिता ।।
- सूय. सु. १. अ. २, उ. १, गा. १६-२० संतता केलोएर्ण भवेरपराजिया | तत्य मंदर विसीयन्ति मच्छा पविट्ठा व क्रेपणे ॥ सू. सु. १, . १ बा. १३
२
परीषहों से पराजित मुनि
परीसहसो भक् ७६५. से गिहेसु वा गिर्हतरेसु वा गामेसु वा गामंतरेसु षा, जगरे वा गगरंतरे था, जगवएस था, जगनयंतरे वा संगतिया जगा भूसा भवति अनुवा फरसा फुति फासे पुट्ठो छोरो अहियासए बोए समितदंसणे ।
ते
जो सहद नामकंट
भय भैरवसदसष्पहासे,
अराई
पडि पनि मसाणे,
।
अक्कोस पहार तज्जणाओ य ।
रामराजे ॥
विविगुणलवोरए य निच्वं,
नो भीए भयमेरवाई विस्म
परीषह सहन करने वाला भिक्षु
७६५ घरों में गृहान्तरों में, ग्रामों में ग्रामान्तरों में, नगरों में, नगरान्तरों में जनपद में या जनपदतरों में कुछ विद्वे पीवन हिंसक (उपवी होते हैं. वे उपसर्ग देते हैं अथवा सर्दी, गर्मी, डांस मच्छर आदि के कष्ट प्राप्त होते हैं, उनसे स्पृष्ट होने पर आ. मु. अ. . ४ . १९६ समदर्शी मुनि उन सबको राग द्वेष रहित होकर सहन करे।
न सरीरं चाभिए जे स भिक्खू ॥ मोसच तदे है.
अक्कुट्ठे व हए व लूसिए वा । पुढवि समे मुणी हवेज्जा,
अनियाणे मोहल्ले व जे स भिक्खू अभिभूय हा परोसा
माओ अप्पयं ।
समुद्धरे वित्तु जामरणं महत्भयं
तवे रए सामभिएस
वीर्याचार [ ३७६
- दस. अ. १०, ग्रा. ११-१४
परीयों से पराजित मुनि
७६४. ममत्व रखने वाले माता, पिता, पुत्री और पत्नी आदि उस श्रमण को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि "तू समझदार है हमारी सेवा कर। क्योंकि हमारी सेवा से वंचित रहकर तु परलोक को सफल नहीं कर पायेगा । इसलिए तू हमारा पोषण
कर ।"
संयम भाव रहित कुछ मुनि (माता, पिता, पत्नी या पुत्री आदि) में मूच्छित होकर मोड़ को प्राप्त होते हैं अ पारिवारिक जनों के द्वारा संयम रहित किये जाते हैं और वे पुन पाप करने में प्रवृत्त हो जाते हैं ।
केशलोच से संतप्त और ब्रह्मचर्य पालन में पराजित असमर्थ साधक संयम में वैसे ही विवाद को प्राप्त होते हैं, जैसे जाल में फेंसी हुई मछलियां तड़कती हैं।
जो इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले – (१) आक्रोश वचनों को, (२) प्रहारों को, (३) तर्जनाओं को और (४) बैताल आदि के अरपन्त भयानक शब्दयुक्त अट्टहासों को सहन करता है तथा सुख और दुःख को समभावपूर्वक सहन करता है - वह भिक्षु है।
जो श्मशान में प्रतिमा को ग्रहण करके अत्यन्त भयजनक दृश्यों को देखकर भी नहीं डरता, जो विविध गुणों और तपों में रत रहता है और जो शरीर पर भी ममत्व नहीं रखता, वह भिक्षु है।
जो मुनि बार-बार देह का व्युत्सगं और त्याग करता है, किसी के द्वारा माको वचन कहने पर पीटने पर अथवा कष्ट देने पर पृथ्वी के समान सहनशील होता है, निदान नहीं करता है, कुलवृत्ति नहीं करता है, वह भिक्षु है।
जो शरीर मे परीयों को जीतकर संसार समुद्र से अपना उद्धार कर लेता है, जो जन्म-मरण को महाभयकारी अर्थात् दुःखों का कारण जानकर संयम और तप में रत रहता है-वह भिक्षु है।