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सूत्र ७३४-७३५
परिमाए विशुद्धा मोजे लोगो
वहा मध्यम सूइए, हलाए एवं कमानि हम्मति मोह
ात पिसानों को बीर्य हानि
गए।
पामेति सुसमाहिए ॥
हम्मद तले । वयं गए ।
सेजावइम्मि निहए, जहा सेणा पणसति । एवं सम्मानि पति मोहसि गए ।
धूमहीणो जहा अग्गी, खीयति से निरिक्षणे । एवं कम्माणि संति, मोहपिक्सेल गए ।
सुबक मूले जहा रुवखे, सिaमाणे ण रोहति । एवं कम्मा ण रोहंति, मोहणिजे स्वयं गए ॥
जहा दाणं बोयाणं न जायंति पुर्णकुरा | कम्म बोए दसु न जायंति भवंकुरा ॥
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चिच्चा क्षौरालियं बोंदि, नाम-गोयं च केवली । च हिला भवति नीरए ।
एवं अभिसमागम्य चिसमादाय उसी । सेणि सुद्धिमुगम्म आया सोधिमुबेहइ ॥
विरमंत चित्ताणं वीरियहानी
७३५. किमणेण णो जणेण फरिस्तामि ? ति भण्णमाणा एवं पेये विता मातरं पितर हेच्या नातओ य परिग्रहं वीराय भाषा समुद्वाए अहिंसा सुव्यता देता ।
परस वीणे उप्पश्य पडिवयमाणे । बसट्टा कायरा जणा लूसगा भवंति ।
बौर्वापार [२१७
fe सिलोए पाए भवति - " से समणविते, से समणविस्मते।"
भिक्षु प्रतिमानों के विशुद्ध रूप से आराधन करने पर और मोहनीय कर्म के हो जाने पर सुसमाहित] आत्मा सम्पूर्ण लोक और बजट को देता है।
जिस प्रकार ताल वृक्ष के अग्र भाग को तीक्ष्ण शस्त्र से छेदन किये जाने पर वह सम्पूर्ण वृक्ष नीचे गिर जाता है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष सर्व कर्मी ही विनष्ट हो जाते हैं।
जैसे सेनापति के मारे जाने पर सारी सेना अस्त व्यस्त हो जाती है इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर सर्व कर्म विनष्ट हो जाते हैं।
जैसे घूम-रहित अग्नि ईन्धन के अभाव से स्वतः शान्त हो जाती है, इसी प्रकार मोहनीय कर्म के पो जाने पर शेय सभी कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं ।
हे आयुष्मान् शिष्य इस प्रकार समाधि के भेदों को जानकर राग और द्वेष से रहित चित्त को धारण कर क्षपक श्रेणी - दा. द. ५, सु. ६, गा. १-१७ को प्राप्त कर आत्मा शुद्धि को प्राप्त करता है, अर्थात् मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है ।
प्रान्त चित्त वालों की वीर्यहानि
७३५. "ओ आत्मन् ! इन स्वार्थी स्वजनों से मैं क्या लाभ प्राप्त करूँगा ?" यह मानते और कहते हुए कुछ लोग माता-पिता, शातिजन और परिग्रह को छोड़कर वीर वृति से मुनि धर्म में सम्यक् प्रकार से प्रव्रजित होते हैं और पूर्णरूप से अहिंसक, सुव्रती और दांत बन जाते हैं ।
जैसे शुष्क जड़ वाला वृक्ष जल सिंचन किये जाने पर भी पुनः अंकुरित नहीं होता है. इसी प्रकार मोहनीय कर्म के क्षय हो जाने पर शेष कर्म भी उत्पन्न नहीं होते हैं ।
जैसे जले हुए बीजों से पुनः अंकुर उत्पन्न नहीं होते हैं, इसी प्रकार कर्म बीजों के जल जाने पर भवरूप अंकुर उत्पन्न नहीं होते है।
मौदारिक शरीर का त्याग कर तथा नाम, गोत्र, आयु और वेदनीय कर्म का छेदन कर केवली भगवान कर्म रज से सर्वथा रहित हो जाते हैं ।
संदन में स्थित होकर दीन बनकर गिरते हुए कुछ मुनियों को तू देख वे विषयों से पीड़ित कायरजन संयम को नष्ट करने या हो जाते हैं ।
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इस कारण से कुछ साधकों की अपकीर्ति हो जाती है कि "यह श्रवण धर्म से युत हो गया है, यह धमगधर्म से युक्त हो गया है।"