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मूत्र ६७७-६७८
विशिष्ट चर्ण में सेवा करने के संकल्प
तपाचार
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भिक्खागा णामेगे एक्माहंसु समाणे वा वसमाणे या गामाण- स्थिरवासी साधु अथवा मासकल्प आदि रहने वाले या गाम दूइजमाणे वा मणु भोयणजातं लमित्ता- पामानुग्राम विचरण करके पहुंचने वाले साधुओं को मनोज्ञ भोजन
प्राप्त होने पर किसी भिक्ष से कहे कि-- "से य भिक्खू गिलाइ, से हंदह पं तस्साहरह,
___ बह भिक्ष रोगी है उसके लिए यह मनोज्ञ आहार ले जाओ, से व भिक्खू णो भुज्जेमा, आहरेज्जासि ।" अगर बह रोगी भिक्ष इसे न खाए तो यह आहार वापस हमारे
पास ले आना क्योंकि हमारे यहाँ भी रोगी साधु है। से य-"णो खतु मे अंतराए आरिस्सामि।"
इस पर आहार लेने वाला साप ऐसा कहे कि - "यदि मुझे - आ. सु. २, अ. १, उ. ११. सु. ४०७-४०८ आने में कोई विष्न उपस्थित न हुआ तो यह आहार वापस ले
आऊँगा।" विसिटु चरियाए सेवाकरण संकप्पा
विशिष्ट चर्या में सेवा करने के संकल्प-- ६७८. जस्स णं भिक्खस्स अब पगप्पे,
६७८. जिस भिक्ष की यह आचार मर्यादा (प्रतिका) होती है किअहं च खलु पडिपणत्तो अपडिग्णतेहिं गिलाणो अगिलाणेहि यदि मैं रोगादि से पीड़ित हो जाऊं तो अन्य साधु को यह अमिकख साहम्मिहि कीरमाण वेयावडिय साइक्जिस्सामि, नहीं कहूँ कि तुम मेरी वयावृत्य करो। किन्तु कोई निरोग
मार्मिक साधु बिना कहे ही वयावृत्य करना चाहेगा तो मैं उसे
स्वीकार करूंगा। अहं शवि खलु अपडिण्णत्तो पडिम्यत्तस्स अगिलाणो गिलाण- यदि मैं निरोग अवस्था में होऊ तब कोई सार्मिक साधु स अभिकंख साहम्मियस्स कुज्जा पेयावडिय करणाए। रोगादि से पीड़ित हो और वह सेवा कराना चाहे तो मैं भी
उसके बिना कहे उसको वै बृत्य करूंगा।
इस प्रकार के विकल्प रखते हुए कोई भिक्षु ऐसी प्रतिज्ञा
लेता है कि१. बाहटु परिगणं आणखेस्सामि आहां च सातिग्जि- (१) मैं अपने सार्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊंगा स्सामि,
और उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार भी करूंगा। २. आहट परिणं आणखेस्सामि आहडं च नो साति- (२) मैं अपने साधर्मिक भिक्षु के लिए आहारादि लाऊँगा ज्जिस्सामि,
लेकिन उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार नहीं करूंगा। ३. आहटट परिणं नो भागक्वेस्सामि आह साति- (३) मैं सामिकों के लिये आहारादि नहीं माऊँगा किन्तु, जिजस्लामि।
उनके द्वारा लाया हुआ स्वीकार करूंगा। ४. बाहट परिणं णो आणखेस्लामि आहां जो साति- (५) मैं साधमिकों के लिए आहारादि नहीं लाऊंगा और जिजस्सामि।
उनके द्वारा लाये हुए को स्वीकार भी नहीं करूंगा। लाषिय आगमाणे तवे से अभिसमण्णागते भवति ।
उक्त प्रतिज्ञाओं में से किसी प्रतिज्ञा को ग्रहण करने पर
भिक्ष लाघवता को प्राप्त कर तर को प्राप्त करता है। जहेतं भगवता पवेदितं तमेव अभिसमेच्चा सध्यतो सवताए भगवान ने जिस रूप में इसका प्रतिपादन किया है उसे सम्मसमेव समभिजाणिया।
उसी रूप में जानकर सब प्रकार से सर्वथा समत्व का आचरण
करे। एवं से अहाकिष्ट्रियमेव धम्म समभिजाणमाणे संते विरते इस प्रकार वह भिक्ष तीर्थकरों द्वारा उपदिष्ट (भक्त प्रत्यासुसमाहितलेस्से । तत्यावि तस्स कालपरियाए से वि तत्व रूपान) धर्म को सम्पक रूप से जानना हुभा और जाकरण करता वियन्तिकारए।
हुआ शान्त बिरत और प्रशस्त सेश्या में अपनी आत्मा को सुसमाहित करने वाला होता है। इस प्रकार भाराधना काल में मरण को प्राप्त करता है और वह मरण भी उसे अन्तक्रिया कराने वाला होता है।