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चरणानुयोग-२
प्रवचन का स्वरूप
सूत्र ६६७-७००
३. परलोगे वृच्चिमा कम्मा इहलोगे हफलविषायसंजुत्ता (३) परलोक में किये हुए दुष्कर्म इस लोक में दुःखरूप फल भवंति,
देने वाले होते हैं । ४, परलोगे दुम्चिना कम्मा परलोमे दुहफलविवागसंजुत्ता (४) परलोक में किये हुए दुष्कर्म परलोक में ही दुःखरूप मवंति.
फल देने वाले होते हैं। १. इहलोगे सुच्चिन्नर कम्मा इहलोगे सुहफल विवागसंजुत्ता (१) इस लोक में किये हुए शुभ कर्म इसी लोक में सूखमय भवंति,
फल देने वाले होते हैं। २. इहलोगे सुच्चिन्ना कम्मा परलोगे सुहफलविवागसंघुसा (२) इस लोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक में मुखमय भर्वति,
फल देने वाले होते हैं। ३. परनोगे सुचिमा कम्मा इहलोगे सुहफलविवागसंजुला (३) परलोक में किये हुए शुभ कर्म इस लोक में मखमय भति,
फल देने वाले होते हैं। ४. परमोशे मुनिक काम गरले गे सुहागत्रिदानसंतला (४) परलोक में किये हुए शुभ कर्म परलोक में सुखस्य फल भवति।
-~-ठाणं. अ. ४, ७, २, सु. २८२ देने वाले होते हैं। पवयण सरूवं
प्रवचन का स्वरूप६९८ इर्म च णं सम्बजगजीव-रक्षणदयट्टयाए पावयणं भगवया ६६८. यह प्रवचन श्रमण भगवान महावीर ने जगत के समस्त
सुकहिये, अत्तहियं, पेरुचा भावियं, आगमेसिभ', सुझं जीवों की रक्षा दया के लिए समीचीन रूप में कहा है। यह प्याउय, अकुडिल, अणुसरं सभ्यरख पावाण, विउसमणं । प्रवचन आत्मा के लिए हितकर है, परलोकगामी है, भविष्यत्
-4. सु. २, अ. १, मु. ६ काल में भी कल्याणकर है, शुद्ध है, स्यावयुक्त है, मुक्ति प्राप्ति
का सरल सीवा मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दु:खों और
पापों को उपशान्त करने वाला है। प०—पवयगं अंते ! पययणं, पावयगी परपणं?
प्र०-भगवन ! प्रवचन को ही प्रवचन कहते हैं, अथवा
प्रवचनी को प्रवचन कहते हैं ? उ.---गोयमा ! अरहा साव नियम पावयणी, पक्ष्यणं पुण उ०-गौतम ! अरिहन्त तो निश्चित रूप से प्रवचनी है दवालसंगे गणिपिळगे, तं नहा--आयारो-जाव-विद्विवानी। और द्वादशांग गणिपिटक प्रवचन हैं । यथा आवारांग-याक्त
-दिया. स. २०, ३.८, सु. १५ दृष्टिवाद । धम्मकहाए विही णिसेहो
धर्मकथा के विधि-निषेध६६६. से भिखू धम्म किट्टमाणे णो अनस्स हे धम्म आइक्वेज्जा, ६६१, धर्मोपदेश करता हुआ भिक्षु आहार के लिए, पानी के
णो पाणस्स हे धम्म माइक्वेज्जा, णो वत्थस्स हे धम्म लिए, वस्त्र-प्राप्ति के लिए, आवास स्थान के लिए, शयनीय आइक्खेग्जा, णो सेगस हेडं धम्म आइनेमा, णो सयणस्स पदार्थों को प्राप्ति के लिए तथा दूसरे विविध प्रकार के कामहे धम्म आइक्खज्जा, णो अन्नेसि बिरूय-क्वाणं काम- भोगों (भोग्य पदार्थों) के लिए धर्म कथा न करे । भोगाणं हेज धम्ममाइक्खेज्जा, अमिलाए धम्ममाइक्विज्जा,
अग्लान भाव से (प्रसन्नता पूर्वक) धर्मोपदेश करे। णणस्य कम्मणिज्जरप्नुयाए धम्म आइक्खेज्जा ।
कर्मों की निर्जरा (आत्मशुद्धि) के उद्देश्य के सिवाय अन्य - सूय. सु. २, अ. १, सु. ६६. किसी भी फलाकांक्षा से धर्मोपदेश न करे । धम्मकहाविवेगो
धर्म-कथा विवेक७००. जहा पुण्णस्म कस्थति तहा तुम्हस्स कस्यति ।
७००. साधक जैसे सम्पन्न व्यक्ति को धर्म-उपदेश करता है, वैसे
ही दरिद्र को भी धर्म उपदेश करता है। बहा तुच्छस्स कस्यति तहा पुग्णास कस्यति ।
जैसे दरिद्र को धर्मोपदेश करता है, धंसे ही सम्पन्न को भी धर्मोपदेश करता है।