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चरणानुयोग-२
आर्तध्यान के लक्षण
सूत्र ७०६-७१.
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२. मणुषणसंपयोगसंपउत्त, तस्स अक्षिप्पयोग सतिसमनायते (२) मनोज्ञ वस्तु की प्राप्ति होने पर उसके अवियोग की याधि भवति,
चिन्ता करना । ३. आपंकसंपयोगसंपडसे, तस्स विप्पयोग सतिसमन्नागते (३) आतंक (रोग) होने पर उसके वियोग की चिन्ता यावि भवति,
करना। ४. परिसियकाममोगसंपउसे तस्स अविप्पयोग सतिसमना- (४) प्रीप्त उत्पन्न करने वाले काम भोग आदि की प्राप्ति
गते यावि भवति। -वि. स. २५ उ.७, सु. २३८ होने पर उनके अवियोग को चिन्ता करना । अट्ट झाण लक्खणा--
आतध्यान के लक्षण७०७. अस्स प्राणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नता, तं जहा - ७०७. आर्तध्यान के चार लक्षण कहे गये है, यथा -- १. कंदणया,
(१) क्र-दनता-आऋन्द करना, २. सोयणया,
(२) शोचनता-शोक करना । ३ तिप्पणया,
(३) सेपनता-आंसू गिराना । ४. परिदेवणया। -वि. स. २५, उ. ४, सु. २३६ (४) परिदेवनता-बार-बार विजाप करना। रुद्द झाण भेया
रौद्रध्यान के भेद७०८. रोद्दे साणे चरविहे परते, तं जहा
७२६. रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है, यथा१. हिसाणुबंधी,
(१) हिंसानुबन्धी - हिंसा को उद्दिष्ट कर एकाग्र चिन्तन
करना। २. मोसाणबंधी,
(२) मृषानुबन्धी-असत्य को उद्दिष्ट कर निरन्तर चिन्तन
करना । ३. सेया बंधी,
(३) स्तेयानुबन्धी-पोरी से सम्बद्ध एकाग्र चिन्तन करना । ४ सारक्खणाणुबंधों। -वि. स २५, उ.७, सु २४० (४) मंरक्षणानुबन्धी-धन आदि के संरक्षण हेतु अनिष्ट
चिन्तन करना। रुद्द शाण लक्खणा
रौद्रध्यान के लक्षण७०६. रोदस सागस्स चतारि लक्खणा पन्नता, तं महा-- ७०६. रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं । यथा१. उस्सन्न दोसे,
(१) ओसन दोष-हिंसादि किसी एक दोष में लीन रहना । २. बहुदोसे,
(२) बहुल दोष-हिंसापि बहुत दोषों में प्रवृत्त रहना। ३. अण्णाणवोसे,
(३) अज्ञान दोष -- अज्ञान के कारण हिमादि में धर्म-बुद्धि
से प्रवृत्ति करना। ४. आमरणंतदोसे।
(४) आमरणान्त दोष-हिंसादि कायों का मरण पर्यन्त - वि. स. २५, उ.७, सु. २४१ पश्चात्ताप न करना एवं उसमें प्रवृत्त रहना । धम्माण भेया
धर्मध्यान के भेद७१०. धम्मेमाणे चाउम्बिहे उप्पयारे पन्नते, तं जहा- ७१०. धर्मध्यान चार प्रकार के चार पदों में अवतरित होता
है, यथा१. क्षाणाविजये,
(१) आज्ञाविचय-बीतगग की आज्ञा का या उनके द्वारा प्ररूपित तत्वों का चिन्तन करना।
(स) ठाणं. अ. ४, उ. १, सु. २४७
१ ठाणं. अ. ४, ज. १, सु २४७ २ (क) उव. सु. ३० में चौथा लक्षण "विलवणया" है। ३ ठाणं. अ. ४, उ १, सु. २४७ ४ ठाण.अ.४, ज., सु. २४७