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परणामुयोग-२
शुक्लष्पान के लक्षण
सूत्र ६१४-७१७
२. एगत्तबियक्के अधियारी,
(२) एकत्व-वितर्क-अविचारी-किसी एक पदार्थ के गुण
या पर्याय का स्थिर चित्त से चिन्तन करना। ३. सुहमकिरिए अनियट्टी,
(३) सूक्ष्म क्रिया अनिवर्ती-योग निरोध में प्रवृत्त आत्मा
की परिणाम अवस्था। ४. समोछिन्नकिरिए अप्पडिबाई।।
(४) समुग्छिन्न क्रिया अप्रतिपाती-सम्पूर्ण योग निरोध वि. स. २५, उ, ७, सु. २४६ हो जाने पर प्राप्त पौदहवें गुणस्थान की आत्म-परिणाम अवस्था । सुक्कक्षाण लक्खणा
शुक्लध्यान के लक्षण७१५. सुक्कस्स पं शरणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता, तं जहा- ७१५. शुक्लध्यान के चार लक्षण कहे गये है, यथा१. खंती,
(१) क्षमा, २. मुत्ती,
(२) निर्लोभता, ३. अजये,
(३) सरलता, ४. मद्दथे ।
-बि. स. २५, उ.७, सु. २४७ (४) मृदुता । सुक्कझाणस्स आलंबणा
शुक्लध्यान के अवलम्बन - ७१६. सुस्करसणं माणस्त चत्तारि आलंधणा पन्नत्ता, तं जहा- ७१६. शुक्लध्यान के चार अवलम्बन कहे गये हैं । यथ१. अध्वहे.
(१) अन्यथ-व्यथित नहीं होना । २. असम्मोहे,
(२) असम्मोह-देवादि कृत माया में मोहित नहीं होना । ३. विबगे,
(३) विवेक-आत्मा और देह के भिन्नता की अनुभूति
होना। ४. विभोसम्मे। -वि. स. २५, उ.७, सु. २४० (४) मुलग-शरीर और उपधि में अनासक्त भाव होना। सुक्कझाणस्स अणुप्पेहाओ
शुक्लध्यान की अनुप्रेक्षायें-- ७१७. सुक्कस्स गं माणस्स चत्तारि अणप्येहामओ पन्नत्ताओ, सं जहा- ७१७. शुक्लध्यान की चार अनुप्रेक्षाएँ कही गई हैं। यथा१. अणतदत्तियाणुप्पेहा,
(१) अनन्तवतितानुप्रेक्षा-अनन्त भव परम्परा का चिन्तन
करता । २. विप्परिणामागुप्पेहा,
(२) विपरिणामानुप्रेक्षा--वस्तुओं के विपरिणमन पर नितन
करना । ३. असुमाणुप्पेहा,
(३) अशुभानुप्रेक्षा-संसार के अशुभ स्वरूप पर चिन्तन
४. अवायागुप्पेहा ।
(४) अपायानुप्रेक्षा--जीव जिन कारणों से दुःखी होता है उन विविध अपायों का चिन्तन करना।
यह ध्यान का स्वरूप है।
से तंमाणे ।'
---वि. स. २५, उ. ७, सु. २४१
१ उव. सु. ३० में शुक्लध्यान के प्रकारों में ३-४ प्रकार में स्थानान्तर "अनियट्टी" की जगह "अप्पडिवाई" और अप्पष्टिवाई
की जगह "अनियट्टी" है। २ उव. सु. ३० में शुक्लध्यान के लक्षणों को आलम्बन और मालम्बन को लक्षण कहा गया है। ३ (क) ठाणे, म. ४, उ, १, सु. २४७
(ख) उव. सु. ३०