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चरणानुयोग-२
आलोचना के कारण
सूत्र ६४३-६४४
आलोचना-१(ग)
आलोयणा कारणा
आलोचना के कारण६४३. तिहि ठाणेहि मायो मायं कटु आलोएज्जा, पटिक्कमेज्जा, ६४३. तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता
णिदेज्जा, गरिहेज्जा, बिउट्टेग्जा, विसोहेज्जा, अकरणयाए है, प्रतिक्रमण करता है, निन्दा करता है, गर्दा करता है, व्यावृत्ति अम्भुढेज्जा, अहारिहं पायच्छित तवोकर्म पडिवरजेज्जा, करता है. विशुद्धि करता है, पुनः वैसा नहीं करूंगा ऐसा कहने तं जहा
को उद्यत होता है, यथायोग्य प्रायश्चित्त रूप तपःकर्म स्वीकार
करता है, यथा१. मायिस्स णं अस्सि लोगे गरहिते भवति ।
(१) मायावी का यह लोक गहित होता है। २. उववाते गरहिते भवति,
(२) परलोक गहित होता है। ३. आशती गरहिता भवति,'
(३) आगामी जीवन गहित होता है। तिहि वाहि मायी मायं कटु आलोएग्जा-जाब-तबोकम्म तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है पडियन्जेज्जा, तं जहा
-वावत्--तपःकर्म स्वीकार करता है । यथा१. अमायिस्स णं अस्सिं लोगे पसत्ये भवति,
(१) सरल मनुष्य का वर्तमान जीवन प्रशस्त होता है। २. उचयाते पसत्थे भवति,
(२) परलोक प्रशस्त होता है। ३. आयाती पसत्या भवति,
(३) आगामी जीवन प्रशस्त होता है। तिहि ठाणेहिं मायी मायं कटटु आलोएन्जा-जाब-तबोकम्म तीन कारणों से मायावी माया करके आलोचना करता है परिवज्जेम्जा तं जहा
-यावत्-तप कर्म स्वीकार करता है । यथा - १. जागठ्याए,
(१) ज्ञान के लिए, २. सणव्याए,
(२) दर्शन के लिए, ३. चरितठ्याए। -ठाणं, अ. ३, उ. ३. सु. १७६ (३) चारित्र के लिए। आलोयणा दोसा
आलोचना के दोष६४४. वस आलोयणादोसा पाणत्ता, तं जहा
६४४. आलोचना के देश दोष कहे गये हैं। जैसे१. आकंपइसा,
(१) सेवा आदि के द्वारा प्रसन्न करके आलोचना करना। २. अणुमाणइत्ता,
(२) "मैं दुर्बल हूँ, मुझे अल्प प्रायश्चित्त देवें" इस भाव से
अनुनय करके आलोचना करना । ३. जं दिठें,
(३) दृष्ट दोष की आलोचना करना । ४. वायरं च,
(४) केवल बड़े दोषों की आलोचना करना । ५. सुदम या,
(५) केवल छोटे दोषों की आलोचना करना। ६. छपणं,
(६) इस प्रकार से आलोचना करना कि गुरु सुनने न पावें। ७. सहाउलगं,
(७) जोर-जोर से बोलकर आलोचना करना। ८. बहुजणं,
() एक के पास आलोचना कर फिर उसी दोष की दूसरे
के पास आलोचना करना। ६. अश्वत्त,
(९: अगीतार्थ के पास आलोचना करना । १०. तस्सेथी।
-ठाणं. अ. १०, सु. ७३२ (१०) अपने समान दोष वाले के पास आलोचना करना।
१ ठाणं.अ.८, सु. ५६४(ख) २ बि. स. २५, उ.७, सु. १६१