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चरणानुयोग-२
आक्षेप लगाने वालों को प्रायश्चित
सूत्र ६५६-६५६
आलोएमाणस्त सव्वमेय सकय साहणिप' आहहेयवे, इनमें से किसी भी प्रकार के भंग से आलोचना करने पर
उसके सर्व स्वकृत अपराध प्रायश्चित्त को संयुक्त करके पूर्व प्रदत्त
प्रायश्चित्त में सम्मिलित कर देना चाहिए। जे एयाए पट्टवणाए पदविए निग्विसमाणे परिसेवेह, से वि जो इस प्रायश्चित्त रूप परिहार तप में स्थापित होकर बहन कांसणे तत्वैव आरूहेयवे सिया।
करते हुए भी पुन: किसी प्रकार की प्रतिसेवना करे तो उसका - वव. उ. १, सु. १५.१८ सम्पूर्ण प्रायश्चित्त भी पूर्व प्रदत्त प्रायश्चित्त में आरोपित कर
देना चाहिए।
आलोचना और प्रायश्चित्त-१(घ)
अक्खेव-कराणं पायच्छित्तं
आक्षेप लगाने वालों को प्रायश्चित्त६५७ कप्पस्स छ पत्यारा पण्णता, तं जहा
६५७. कल्प साध्वाचार के छह विशेष प्रकार के प्रायश्चित्त स्थान
कहे गये हैं। यथा१. पाणाइवायस्स वायं वयमाणे,
(१) प्राणातिपात का आरोप लगाये जाने पर । २. मुसावायरस वाय वयमाणे,
(२) मृषावाद का आरोप लगाये जाने पर, ३. अविनावागस्स वाय' घयमाणे,
(३) अदत्तादान का आरोप लगाये जाने पर, ४, अविरहयावाय वयमाणे,
(४) ब्रह्मचर्य भंग करने का आरोप लगाये जाने पर, ५. अपुरिसवाय वयमाणे,
(५) नपुंसक होने का आरोप लगाये जाने पर, ६. वासवाय वयमागे।
(६) दास होने का आरोप लगाये जाने पर, इच्चेए कप्पस्स पत्थारे पत्यरेता सम्मं अपरिपूरमाणे संयम के इन विशेष प्रायश्चित्त स्थानों का आरोप लगाकर ताण पत्ते सिया।'
उसे सम्यक् प्रमाणित नहीं करने वाला साधु उसी प्रायश्चित्त
-कप्प. उ. ६, सु. २ स्थान का भागी होता है। अणुग्धाइय पायश्चित्तारिहा
अनुपातिक प्रायश्चित्त के योग्य६५८. पंच अणुग्धाश्या पण्णता, तं जहा
६५८. पाँच अनुद्घातिक (गुरु) प्रायश्चित्त के योग्य कह हैं,
यथा१ हत्य कामं करेमागे,
(१) हस्तकर्म करने वाला, २. मेहुणं पडिसेवेमाणे,
(२) मैथुन-सेवन करने वाला, ३. राई भोषणं मुंजमाणे,
(३) रात्रि भोजन करने वाला, ४. सागारियपिड मुंओमाणे,
(४) शय्यातर पिण्ड को खाने वाला, ५. रायपि भुजेमाणे। --ठाणं. अ. ५, उ. २, सु. ४१४ (५) राजपिण्ड को खाने वाना। अणवठप्प पायच्छित्तारिहा
अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य६५६. ती अगवटुप्पा पण्णत्ता, तं जहा
६५६. तीन अमवस्थाप्य प्रायश्चित्त के योग्य कहे गये है, यथा
१ नि. ल. २०, सु. १७-२० २ ठाण. अ. ६, सू. ५२८ ३ (क) ठाणं. अ. ३, उ. ४, सु. २०३
(ख) कप्प. उ.४, सु. १