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सूत्र ६३०-६३३
अभिमतर-तव-परूवणं-
६३०. एसो बाहिरंग तवो, समासेण वियाहिओ । अम्मिन्तरं तवं एतो, बुच्छामि अप्पुपुवसो ।
अभितर तव मेया
६३१.
उ० अमितरए ये
१. पायच्छितं
२.
X. Whi
अतिरए त ?
भोगे
१०. प्रायश्वित्त (क) (आभ्यन्तर तप ) (1)
पायच्छित जग्गा चरिता६३२. चत्तारि कुम्भा पण्णत्तर, तं जहा१. मिणे,
३. परिस्साई
४. अपरिसा
एवमेव च परि तंज
आउरे
आवतीति य संकिणे
आभ्यन्तर तप का प्ररूपण
- उत्त. अ. ३०, मा. २६
१.
२.ए. ३. परिस्साई
४. अपरिस्साई । - ठाणं. अ. ४, उ. ४, सु. ३६० पालि जग्गा डिलेवणप्यारा६३३. ५० - कहविहाणं अंते ! पडिलेषणा पण्णत्ता ?
१) ठाणं. अ. सु. ५११ (ग) उव. सु. ३०
पगले जहा सं २.
४. सम्झाओ. ६. विसग्गों
- वि. स. २५, उ. ७, सु. २१७
उ०- गोयम्मा ! वसविहा पडिसेवणा पण्णता, तं जहा
वप्प ध्यमाव
२. जजरिए.
आभ्यंतर तप का प्ररूपण
६३०. यह बाह्य तप संक्षेप में कहा गया है। अब मैं अनुक्रम से आभ्यन्तर तप को कहूँगा ।
आभ्यंतर तप के वेद
६३१. प्र०—आभ्यन्तर तप क्या है वह कितने प्रकार है ? उ०- आन्यन्तर तप छह प्रकार का कहा गया है, यथा(१) प्रायश्चित्त, (२) विनम (३) वैयाम (४) स्वाध्याय, (६) स
(५) ध्यान,
जैसे
तपाचार
प्रायश्वित योग्य चारित्र-
६३२. कुम्भ चार प्रकार के कहे गये हैं। जैसे
(१) भिन्न (फूटा ) कुम्भ, (२) जर्जरित ( पुराना ) कुम्भ,
(३) परिवावी (झरने वाला) कुम्भ
(४) अपरिवादी नहीं शरने वाला) कुम्भ
इसी प्रकार चारित्र भी चार प्रकार का कहा गया है।
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(१) भिन्न चारित्र - मूल प्रायश्चित्त के योग्य । (२) पाद प्रायश्वित के योग्य
(३) परिसावी चारित्र--सूक्ष्म अतिचार वाला ।
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(४) अपरिसावी- बारा निर्दोष चारि प्रायश्चित योग्य प्रतिसेवना के प्रकार
-
६३३. प्र० भन्ते ! प्रतिसेवता ( दोष सेवन) कितने प्रकार की कही गई है?
उ०- गौतम प्रतिसेवना दस प्रकार की कही गई है, यथा
(१) दर्प प्रतिसेवना अहंकार से दोष सेवन,
(२) प्रमाद प्रतिसेवना आलस्य से दोष सेवन,
(३) अनाभोग प्रतिसेवनमसावधानी से दोष सेवन,
(४) आतुर प्रतिसेवना भूख प्यास आदि से पीड़ित होने पर दोष सेवन,
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(ख) सम. स. ६, सु. १
(घ) उत्त. अ. ३०, गा. ३०
(५) आपत् प्रतिसेवना-आपत्ति आने पर दोष सेवन, (६) संकीर्ण प्रतिसेवमाक्षेत्र की संकीर्णता से दोष रोवन,