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सूत्र ४३६-४४१
एकपक्षीध भिक्षु को पत्र देने का विधाम
संघ-व्यवस्था
(२११
निस्वास परियाए समणे णिगंथे
आचार्य के दिवंगत होने पर निरुव वर्ष पर्याय वाले श्रमण कप्पा आयरिय-उवग्मायलाए उद्दिसित्तए, समुच्छेयकप्यसि । को आचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। तस्स गं आयार-पकप्पस्ल देसे अट्टिए,
उसके आचार प्रकल्प का कुछ अंश अध्ययन करना शेष हो से २ "वहिन्जिस्सामि" ति अहिज्जेज्जा,
और वह अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर पूर्ण कर ले तो एवं से करपड आयरिय-उवायत्ताए उद्दिसिसए । उसे प्राचार्य या उपाध्याय पद देना कल्पता है। से य "अहिन्जिस्सामि" ति नो अहिज्जेम्जा,
किन्तु यदि वह शेष अध्ययन पूर्ण करने का संकल्प रखकर एवं से नो कप्पद आयरिय-उपजायत्साए उद्दिसित्तए । भी उसे पूर्ण न करे तो उसे आचार्य या उपाध्याय पद देना नहीं
-वव. उ. ३, सु. ६, ८, १० कल्पता है । एगपक्खियस्स भिक्खुस्स पदद-रण विहाणं
एकपक्षीय भिक्षु को पद देने का विधानwaसपक्खियरस मिक्खस्स कथ्या आयरिय-उबझापा ४४०. आचार्य या उपाध्याय के स्थान पर एक पक्षीय अर्थात
सिरिय विसं वा, अणविस वा, उद्दिसितए वा, धारेतए एक ही आचार्य के पास दीक्षा और श्रुत ग्रहण करने वाले भिक्ष वा, जहा वा तस्स गणस्स पत्तियं सिया।
को ही अल्पकाल के लिए अथवा यावज्जीवन के लिए भाचार्य -बब. उ. २, सु. २६ या उपाध्याय के पद पर स्थापित करना या उसे धारण करना
कल्पता है । अथवा परिस्थितिवश गण का हित हो वैसे भी किया
जा सकता है। गिलाण आयरियाइणा पद-दाण निद्देसो
ग्लान आचार्यादि के द्वारा पद देने का निर्देश११. आयरिय-उपमाए गिलायमाणे अन्नयरं वएक्जा-"अम्जो! ४४१. रोगग्रस्त भाचार्य या उपाध्याय किसी प्रमुख साध से ममंसि णं कासगपसि समाणंसी अयं समुश्कसियो ।" कहे कि "हे आय ! मेरे कालगत होने पर अमुक साधु को मेरे
पद पर स्थापित करना।" से य समुक्कसमारिहे समुक्कसियदे,
यदि आचार्य निर्दिष्ट वह उस पद पर स्थापन करने योग्य
हो तो उसे स्थापित करना चाहिए । से य नो समुश्कसणारिहे नो समुफ्फसियचे,
यदि वह उस पद पर स्थापन करने योग्य न हो तो उसे
स्थापित नहीं करना चाहिए। अस्यि य इत्य अन्ने केइ समुक्कसणारिहे से समुक्कसियो, यदि संघ में अन्य कोई साधु पद के योग्य हो तो उसे
स्थापित करना चाहिए। नत्यि य इत्य अन्ने फेइ समुक्कसणारिहे से वेध यदि संघ में अन्य कोई भी साधु उस पद के योग्य न हो समुक्कसियवे,
तो आचार्य निर्दिष्ट साधु को ही उस पद पर स्थापित करना
चाहिए। तंसि च णं समुक्किठ्ठसि परो बएग्जा
उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ
साधु कहे कि"वुस्समृक्किट्ठ ते अज्जो ! निक्सिवाहि !"
"हे आर्य ! तुम इस पद के अयोग्य हो 1 अतः इस पद को तरतणं निविषवमाणस नरिथ के छेए वा परिहारे या। छोड़ दो"- (ऐमा कहने पर) यदि वह उस पद को छोड़ दे तो
वह दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त का पात्र नहीं होता है। जे साहम्मिया अहाकप्येण नो उडाए विहरति सम्बेसि सि जो सामिक साधु कल्प के अनुसार उसे प्राचार्यादि पद तपत्तियं छए वा परिहारे बा , -बब. उ. ४, गु. १३ छोड़ने के लिए न कहे तो वे सभी साधर्मिक साधु उक्त कारण
से दीक्षा-छेद या परिहार प्रायश्चित्त पात्र होते हैं।