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सूत्र ५६३
भिक्षाचर्या के प्रकार
तपाचार
[२६६
भिक्खायरिया पगारा---
भिक्षाचर्या के प्रकार१६३.५०-सेकस लायरिया।
५६३. प्र०—भिक्षाचर्या कितने प्रकार की है ? उ०—भिक्खायरिया अणेगविहा पष्णसा, तनहा .
उ०-भिक्षाचर्या अनेक प्रकार की कही गई है, यथा१. वन्वामिग्महचरए।
(१) द्रव्यों की भर्यादा का अभिग्रह करके आहार लेना। २. खेत्ताभिमहावरए ।
(२) ग्रामादि क्षेत्रों में से किसी एक क्षेत्र का अभिग्रह करके
आहार लेना। ३. कालाभिगहमरए।
(३) दिन के अमुक भाग में आहार लेने का अभियह करना । ४. भावाभिमहघरए।
(४) अमुक भय या वणं चाले से आहार लेने का अभिग्रह
करना। ५. उक्वित्तवरए।
(५) किसी बर्तन में भोजन निकालने वाले से बाहार लेने
का अभिग्रह करना। ६. निक्षितचरए।
(६) किसी बर्तन में भोजन डालने वाले से आहार लेने का
अभिग्रह करना। ७. उविधत्त-निक्खित्तपरए ।
(७) किसी एक वर्तन में भोजन लेकर दूसरे बर्तन में डालने
दाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ८. निश्वित्त-उक्तित्तघरए।
(८) किसी एक बर्तन में निकाले हुए भोजन को दूसरे बर्तन
में लेने वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ६. वट्टिज्जमाणचरए।
() किसी के लिए थाली में परोसा हुआ' आहार लेने का
अभिग्रह करना। १०. सम्हरिज्जमाणचरए।
(१०) थाली में ठारे हुए भोजन को अन्य बर्तन में लेने
वाले से आहार लेने का अभिग्रह करना । ११. जवणीयचरए।
(११) आहार की प्रशंसा करके देने वाले से बाहार लेने
का अभिग्रह करना। १२. अवणीयचरए।
(१२) आहार की निन्दा करके देने वाले से बाहार लेने
का अभिग्रह करना । १३. उवणीय-अवगीयघरए।
(१३) जो बाहार की पहले प्रशंसा करके बाद में निन्दा
करे उससे आहार लेने का अभिग्रह करना । १४. अबणीय-उवणीपचरए ।
(१४) जो बाहार की पहले निन्दा करके बाद में प्रशंसा
करे उससे आहार लेने का अभिग्रह करना। १५. संसट्टचरए।
(१५) लिप्त हाथ, पात्र या चम्मच से आहार लेने का
अभिग्रह करना। १६. असंसटुचरए ।
(१६) अलिप्त हाथ, पात्र या चम्मच से आहार लेने का
अभिग्रह करना। १ "भिक्षाचर्या" यद्यपि छः प्रकार के बाह्यतपों में से एक प्रकार का तप है और वह निर्जरा का हेतु है तथापि अभिग्रह युक्त
भिक्षाचर्या ही तप रूप है अतः उसका वर्णन लपाचार में लिया गया है और सामान्य भिक्षाचर्या एषणा समिति का विषय है
इसलिए उसका सम्पूर्ण वर्णन "एषणा समिति" में दिया है। . २ असंसृष्ट चरक अलिप्त हाय, पात्र या चम्मच से बाहार लेने का निषेध आ. श्रु. २, अ.१, उ.६, सु. ३६० में तथा दथर्वकालिक अ. ५, उ. १, गा. ३२ में है क्योंकि लिप्त हाथ आदि को धोने से पश्चात् कर्म दोष लगता है।
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