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चरणानुयोग – २
सर्पदंश चिकित्सा के विधि-निषेध
माझे लक्पा, अमाये अपत्येमाणे, जगमनसमये नहीं करता, चाहना नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता और अभि लाषा नहीं करता है । इस प्रकार दूसरे के लाभ का आस्वादन दुपार - उत्त. अ. २६, सु. ३५ कल्पना, स्पा, प्रार्थना और अभिलाषा न करता हुआ दूसरी -स्था (संयम और स्वावलम्बीपन) को प्राप्त कर विचरण करता है ।
गृहस्थ के साथ व्यवहार - १०
सप्पयंस तिमिन्छाए विहि-जिसेहो
४८८. निग्गं चणं राओ वा विद्याले वा बीहपट्टो लूसेना, मी या पुरस्र मावेला पुरिसो वा इवीए घोषा देना एवं से पद एवं से चिपरिहार से मेरे पाउद, एस कम्पे बेरका
एवं से नो कम्पद, एवं से नो चिट्ठ, परिहारं च से पाउण एस कप्पे जिण कवियाणं । वव. उ. ५, सु. २१
गारत्थियाहि सद्धि भिक्खट्टा गमण जिसे हो४८. सेवामा
चिडवा पडियार पविसितु कामे णो अण्णउत्पिण या गारस्थिएण वा परिहारिओ अपरिहारिएणं सद्धिं गाहाथतिकुलं पिढवाय पविसेज या क्लिमेज्ज वा ।
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-आ. सु. २, अ. १, १, सु. ३२७ यारत्याह स स्विट्टा गमण पायस्थित गुप्तं ४१०. एका वारथिथा परिहारियो
अपरिहारिएणं सद्धि गाहाबडकुलं विडवाय पडियार, क्खिमह वा पविसह या क्लितं वा पवितं वा साइज्जइ । तं सेवमाने आज नाहियं परिहारद्वाणं उ -नि. उ. २, सु.
४०
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४००-४११
सर्पदंश चिकित्सा के विधि-निषेध-४६६. यदि किसी
निग्रन्थ या निर्ग्रन्थी को रात्रि या विकाल तीन की और पुरुष निर्ध
(सनया) में
भी सर्पदंश
करें तो इस प्रकार से उपचार कराना उनको कल्पता है । इस प्रकार उपचार कराने पर भी उनकी साता रहती है तथा वे प्रायश्वित के पास नहीं होते हैं। यह स्थविरवस्वी साधुओं का आचार है।
जिनकल्प वालों को इस प्रकार उपचार कराना नहीं कल्पता है । इस प्रकार उपचार कराने पर उनका जिनकल्प नहीं रहता है, और वे प्रायश्चित्त के पात्र होते हैं । जिनकल्पी साधुओं का यही आचार है ।
गृहस्थ आदि के साथ मिटाये जाने का निषेध-४०९ गृहस्य के घर में भिक्षा के निमित्त प्रवेश करने का इच्छुक भिक्षु वा भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पारि हारिक (उत्तम) साघ्र अपारिहारिक (पार्श्वस्थ ) साधू के साथ भिक्षा के लिए जावे आये नहीं ।
गृहस्थ आदि के साथ भिक्षार्थ जाने का प्रायश्चित सूत्र ४६०. जो भिक्षु अन्यतीर्थिक या गृहस्थ के साथ तथा पारिहारिक साधु अपारिहारिक साधु के साथ गृहस्थ के घरों में भिक्षा के लिये जावे या जाने आने वाले का अनुमोदन करे।
उसे उद्घातिक मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है।
गारस्थियाईणं असणाइ वाण जिसेहो ४६१. से मिक् या मिलूणी वा गाहाबडकुलं मिडवाय पहियाए अपविट्ठे समाणे जो अण्णउत्थियस्स या गारस्यियस्स वा परिहारियो अपरिहारिया या असणं वान-सामिधु को अपना प्रेक्णा या अणुपदेजा था।
किसी से दिलाए ।
- आ. सु. २, अ. १, उ. १, सु. ३३०
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गृहस्व आदि को अशनादि देने का निषेध४९१. गृहस्थ के घर में भिक्षा के लिए प्रविष्ट भिक्षु वा भिक्षुणी अन्यतीर्थिक या गृहस्थ को तथा पारिहारिक भिक्षु अपारिहारिक स्थान तो और स्वयं दे न