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धरणानुयोग-२
कलह उपशमन के विधि-निषेध
सूत्र ५२८-५३०
१. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि आणं वा धारणं वा सम्म (१) माचार्य और उपाध्याय गण में आशा तथा धारणा का पउंजित्ता भवति ।
सम्यक् प्रयोग करते हों। २. आयरिय-उवमाए णं गर्णसि अहारावणियाए सम्म (२) आचार्य और उपाध्याय गण में यथारानिक वन्दन व भ्म वेणश्च पॉजता अति
बिनय व्यवहार का सम्यक् प्रयोग करते हों। ३. आपरिय-जयज्माए णं गपंसि जे सुत्तपज्जवजाते धारेति (३) आवार्य और उपाध्याय जिन सूत्र के अर्थ प्रकारों को ते काले काले सम्म अणुप्पयाइसा भवति ।
धारण करते हैं, उनकी यथासमय गण को सम्यक वाचना देते हों। ४. आयरिय-उयजमाए गं गणसि गिलाण सेह वेयात्रच्चं (४) आचार्य और उपाध्याय गण में रोगी तथा नवदीक्षित सम्म अम्भुद्वित्ता भवति ।
साधुओं की बयावृत्य कराने के लिए समुचित व्यवस्था करते हों। ५ आयरिय-उवमाए गं गणसि आपुच्छियचारी यावि (५) आचार्य और उपाध्याय गण में अन्य को पूछकर कार्य भवति, णो अणापुनिछयचारी।
करते हों, बिना पूछे नहीं करते हों। -ठाणं. अ. ५, उ. १, सु. ३६६ कलह उवसमणस्स विहि-णिसेहो
कलह उपशमन के विधि-निषेध५२६. नो कप्पा निग्गंधाणं विकिटाई पाहुडाई विमोसवेसए। ५२६. निर्ग्रन्थों में यदि कलह हो जावे तो उन्हें दूरवर्ती क्षेत्र में
रहे हुए उपशमन करना और ज्वमाना नहीं कल्पता है। कप्पह निगंथोणं विहकिटाई पाहयाई विओसषेत्तए। किन्तु निग्रंथियों में यदि कलह हो जावे तो उन्हें दूरवर्ती
-वव. उ.७, सु. १२-१३ क्षेत्र में रहे हुए उपशमन करना और समाना कल्पता है। अण्णस्स अणवसंते वि अप्पणी उनसमण णिसो- अन्य के अनुपशांत रहने पर भी स्वयं को उपशांत होने
का निर्देश५३०. भिक्यू य अहिंगरगं कट्ट, तं अहिगरगं विओसयित्ता ५३०. भिक्षु किसी से कलह होने पर उस कलह को उपशान्त करके विओसवियपाह।
स्वयं सर्वथा कलह रहित हो जाबे, उसके बाद जिसके साथ क्लेश
हुआ हो१. इच्छाए परी त्याढाएज्जा, इच्छाए परोणो आढाएजा। (१) वह इच्छा हो तो आदर करे, इच्छा न हो तो आदर न
करे। २. इच्छाए परो अम्मुट्ठज्जा, इच्छाए पगे णो अग्भट्टज्जा । (२) वह इच्छा हो तो उसके सन्मान में उठे, इच्छा न हो
तो न उठे। ३. इच्छाए परो बन्देजा, इछाए परो नो वन्वेज्जा। (३) बह इच्छा हो तो वन्दना करे, इच्छा न हो तो बन्दना
न करे। ४. इच्छाए परोस भुजेजा, इच्छाए परो नो संभुजा । (४) वह इच्छा हो तो उसके साथ भोजन करे, इच्छा न हो
तो भोजन न करे। ५. इच्छाए परो संवसेज्जा, इच्छाए परो नो संबसे ज्जा। (५) वह इच्छा हो तो उसके साथ रहे, इच्छा न हो तो न
रहे। ६. इच्छाए परो जवसमेजा, छाए परो नो उवसमेजा। (६) बह इच्छा हो तो उपशान्त होवे, इच्छा न हो तो उप
शांत न होने । ७. जो उपसमइ सस्स अस्थि बाराहणा ।
जो उपप्रान्त होता है उसके संयम की आराधना होती है। जो न उषसमह तस्स नस्थि आराहणा,
किन्तु जो उपशान्त नहीं होता है उसके संयम की आराधना
नहीं होती है। तम्हा अप्पणा व उपसमियध्वं ।
इसलिए अपने आपको ही उपशान्त कर लेना चाहिए । १०-से किमाइ मन्ते!
प्र.हे भन्ते ! ऐसा कहने का क्या तात्पर्य है? उ.-"सवसमसार छु सामण्णं ।"....कप्प. उ. १, सु. ३६ १०-उपशान्त रहना ही श्रमण जीवन का सार है।