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सूत्र ५३८
तप का स्वरूप
तपाचार
[२५७
तपाचार (बाह्य)
तप का स्वरूप एवं प्रकार-१
[ बाह्य ]
तवसरूवं
तप का स्वरूप---- ५३५. जहा उ पावर्ग कम्म, रागवोस समज्जि।
५३८. जिस तपानुष्ठान द्वारा भिक्षु राग-द्वेष से अजित पाप सवेह तवसा भिक्खू, तमेगग्यमणो सुण ।। कर्मों का क्षय करता है, उस तप के स्वरूप को एकाग्र मन होकर
सुनो। पाणवह भुसावाया, अवत्त-मेहुण-परिग्गहा विरओ ।
प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह एवं राईभोयण - विरओ, जोवो भवन अणासशे ॥ रात्रि भोजन से विरत जीव अमानवी होता है। पंचसमिओ तिगुत्तो, अफसाओ जिइन्दिमो ।
पाँच समिति एवं तीन गुप्ति से युक्त, कषाय रहित, जितेअगारवो य निस्सल्लो, जीवो होइ अणासवो ।। न्द्रिय, गर्व एवं शल्य से रहित जीव अनानवी होता है। एएसि तु विवन्यासे, रागहोस-समज्जियं ।
उपरोक्त गुणों से विपरीत आचरण करने पर राग-द्वेष से जहा खवरह भिक्खू, तं मे एगमणो सुण ।।
जो कर्मोपार्जन होता है, उन कर्मों को मुनि किस प्रकार क्षय
करता है, उसको मुझ से एकाग्र मन होकर सुनो। जहा महातालास्स सनिवे- जलागमे ।
किसी बड़े तालाब में जल आने के मागों को रोक देने पर उस्सिचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ॥ उसमें रहे हुए पानी को बाहर निकाल देने पर तथा सूर्य के ताप
द्वारा सूखने पर जिरा प्रकार उसका जल क्रमशः क्षीण हो
जाता है। एवं तु संजयस्तावि पावकम्म निरासथे।
इसी प्रकार नवीन पाप कमों को रोक देने पर संयमी भवकोडी संचियं कम्म, तवसा पिज्जरिज्जई ॥
साधुओं के भी करोड़ों भवों के संचित कर्म ता के द्वारा क्षय हो - उस.अ. ३०, गा. १-६ जाते हैं। तेसि पि तवो सुद्धो, णिवर्खता जे महाफुला ।
जो बड़े कुलों से अभिनिष्क्रमण कर मुनि बनते हैं और अवमाणिते परेणं तु, ण सिलोग वयंति ते ।
दूसरों के द्वारा अपमानित होने पर भी अपनी श्लाघा नहीं करते -सूय, सु. १, अ., गा. २४ अर्थात् अपने बड़प्पन का परिचय नहीं देते उनका तप शुद्ध
होता है। धुणे उरान अणुवेहमाणे, चेच्चाण सोय अणपेक्त्रमाणे | आत्रों को छोड़कर किसी प्रकार की अपेक्षा न रखता
-सूय. सु. १, ब. १०, गा. ११ (ख) हुआ साधु विवेकपूर्वक औदारिक शरीर को कृश करे।। युणिया कुलियं व लेक्वं, किसए देहमणसणाविहिं।
जैसे गोबर आदि से लीपी हुई दीवार के लेप को उतार अविहिंसामेव पठबए, अणुधम्मो मुणिणा पवेदितो ।। बार पतली कर दी जाती है, वैसे ही मुनि अनशन आदि के द्वारा
देह को कूश करे तथा अहिंसा आदि धर्मों का पालन करे। यह
मोक्षानुकूल धर्म है, जिसका प्ररूपण सर्वज्ञ प्रभु ने किया है। सउणी जह पंसु गुडिया, विधुणिय धंसयती सियं रखें।
जैसे धूल से भरी हुई पक्षिणी अपने पंखों को फड़फड़ाकर एवं अविओवहाणवं, कम्मं खबति तवस्सी माहगे ।। लगी हुई रज को झाड़ देती है, इसी प्रकार संयमवान् तपस्वी
-सूय. सु १, अ. २, उ. १, मा. १४-१५ मुनि तपस्या के द्वारा कर्मों को क्षय कर देता है।
पाठान्तर१ तेसि पि तबो ग सुदी णिखता जे महाकुला । ] नेवन्ने वियाणन्ति, गं सिलोग पवेयए ।