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सूत्र ५०५-५०७ अपवाद में एकाकी बिहार का विधान
संघ-व्यवस्था [२४५ mmmwammmm.mmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm वयसा वि एने बुझ्या कुप्पति माणवा।
क्योंकि कुछ साधक प्रतिकूल वचन सुनकर भी कुपित हो उष्णतमाणे प गरे महता मोहेण मुग्मति ।
जाते हैं । स्वयं को उन्नत मानते हुए कोई अभिमानी सापक प्रबल
मोह से मूढ हो जाता है। सबाहा बहवे भुज्जो भुमो दुरतिक्कमा अजाणतो अपासतो। उस अज्ञानी अतत्वदों के लिए बार बार आने वाली अनेक
परीषह रूप राधाओं को पार करना अत्यन्त कठिन होता है। एवं ते मा हो।
तीर्थकर भगवान् का यह उपदेश है कि ऐसी अवस्था तुम्हारी एवं कुसलस्म सग । -आ. सु १, अ.५, उ. ४, मु. १६२ न हो अतः अव्यक्त. साधक को गुरु के सान्निध्य में ही रहना
चाहिए। अववाए एगागी विहार विहाणं
अपवाद में एकाकी विहार का विधान५.६. न वा लभेषजा निजणं सहायं,
५०६. यदि अपने से अधिक गुणवान् या अपने समान गुणी कोई गुणाहियं वा गुमओ समं वा। निपुण सहायक न मिले तो भिक्षु पापों का वर्जन करता हुआ, एपको वि परावाई विवरणपन्तो,
विषयों में अनासक्त रहकर अकेला ही विहार करे। विहरेज कामेगु अमजमाणो ।'
--उत्त. अ.३२, गा.५ एगागी भिक्षुस्स पसस्था बिहार चरिया ...
एकाकी भिक्षु की प्रशस्त विहार चर्या५०७. हमेाँस एगरिया होति ।
५०७. इस जिनशासन में कुछ साधुओं द्वारा एकाकी चर्या
स्वीकृत की जाती है। तस्थितराइत्तरेहि कुसेहिं सुडेसणाए सव्वेसणाए से मेधारी उनमें मेधावी साधु विभिन्न कुलों से शुद्ध एषणा और परिश्वए, सुरिंभ अवुवा दुर्मिक अनुवा तस्य भेरवा पाणा पाणे सर्वेषणा से संयम का पालन करता हुआ विचरे । अनुकूल या किलेसति । ते फासे पुट्ठो धोरो अहियासेक्जासि । प्रतिकूल परिस्थिति में समभाव रखे । अथवा यदि इस चर्या में -आ. सु. १, अ. ६, न. २, सु. १८६ हिंसक प्राणी प्राणों को क्लेश पहुंचाए, तो उन दुःखों का स्पर्श
होने पर भी धीर मुनि उन्हें सम्यक् प्रकार से सहन करे। एगे घरे ठाणमासणे, सयणे एगे समाहिए सिया। मिक्षु वचन से गुप्त, मन से गुप्त तथा तपोबली होकर भिश्यू उपहागवोरिए, वइगुप्से अप्पसंपुढे । विचरण करे तथा कायोत्सर्ग, आसन और शयन भी अकेला ही
करता हुआ समाधियुक्त होकर रहे। जो पीहे गावावंगुणे, दार सुन्नघरस्स संजते । ___वह भिक्षु यदि शून्य गृह में ठहरा हो तो वहाँ द्वार न खोले पुट्ठो ण उवाहरे व्यं, न समुच्छे नो य संथरे तणं ।। और न ही बन्द करे, किसी से पूछने पर भी न बोले, उस मकान
का कचरा न निकाले, और घास भी न बिछाए । (किन्तु अपने
आवश्यक स्थान को पूज कर बैठे या सोवे)। जत्थत्यभिए अणाउले, सम-विसमाणि मुणोऽहियासए । जहाँ सूर्य अस्त हो जाए वहीं क्षोभ रहित होकर रह जाए। चरमा अदुवा विभेरवा, अदुवा तस्य सिरीसिवा सिया ।। सम-विषम स्थान हो तो उसे सहन करे। वहाँ यदि डांस-मच्छर
आदि हो, अथवा भयंकर प्राणी या साप आदि हों तो भी मुनि
इन परीषहों को सम्यक् रूप से सहन करे। तिरिया मणुयाय रिश्वगा, उवसम्मा तिविहाहियासिया। शून्य गृह में स्थित महामुनि तिर्यन मनुष्य एवं देवजनित लोमावीर्य पि ण हरिसे, सुन्नागारगते महामुणी ॥ विविध उपसर्गों को सहन करे । किन्तु भय से रोमांचित न होवे । को अभिकंखेज्जा जीवियं, जो विय पूयणपत्थर सिया । साधु न तो असंपम जीवन की आकांक्षा करे और न ही अबभत्यमुर्वेति मेरवा, सुन्नागारगमस्स भिक्खुणो। सत्कार-प्रशंसा का अभिलाषी बने । शूभ्य गृह स्थित भिक्षु को
धीरे-धीरे भयानक प्राणी भी सह्म हो जाते हैं ।
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दस. चू.२.गा.१०।