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१३४५४.४५६
निप्रन्यो के लिए आचार्य उपाध्याय पर योग्य निग्रन्थ
संघ-पवस्था
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सा य समुषकसिणारिहा समुपसियरवा,
यदि वह साध्वी उस पद पर स्थापन करने योग्य हो तो उसे
उस पद पर स्थापित करना चाहिए। सा प नो समुक्कसिगारिहा सो समुफ्फसियया ।
यदि वह उस पद पर स्थापित करने योग्य न हो तो उसे
स्थापित नहीं करना चाहिए। अरिय य इत्य अन्ना काइ समुक्कसिणारिहा सा समुक्क- यदि समुदाय में अन्य कोई साध्वी उस पद के योग्य हो तो सियव्वा ।
उसे स्थापित करना चाहिए। नस्थि य इत्य अन्ना काइ समुषकसिणारिहा सा चेव यदि समुदाय में अन्य कोई भी साध्वी उस पद के योग्य न समुपकसियया ।
हो तो प्रवलिनी-निर्दिष्ट साध्वी को ही उस पद पर स्थापित
करना चाहिए । ताए । समुक्किट्ठाए परा बएग्जा-"पुस्तमुक्किट्ठ ते उस को उस पद पर स्थापित करने के बाद कोई गीतार्थ अो । निविखवाहि ।" ताए णं निमिखवमागाए नस्थि केइ साध्वी कहे कि-"ह आर्य! तुम इस पद के अयोग्य हो अतः छेए वा परिहारे वा।
इस पद को छोड़ दो" (ऐसा कहने पर) यदि वह उम पद को छाड़ दे तो बह दीक्षा-छेद का परिहार प्रायश्चित्त की पात्र नहीं
होती है। आओ साहम्मिणीयो महाकप्पं नो उद्वार विहरति सम्वासि जो स्वधर्मिणी साध्वियां कल्प के अनुसार उसे प्रतिनी तासि तप्पत्तियं छेए वा परिहारे वा।
आदि पद छोड़ने के लिए न कहें तो वे सभी स्वामणी साध्वियाँ -व. उ. ५, सु. १४ उक्त कारण से दीक्षा-छद या परिहार प्रायश्चित की पाष
होती है। णिगंयोए आयरिय-उवज्झाय पवारिह लिग्गंथ
निग्रन्थी के लिए आचार्य उपाध्याय पद योग्य निर्ग्रन्थ४५५. तिवासपरियाए समणे निगाथे तोसं यासपरियाए समणीए ४५५. तीस वर्ष की श्रमण पर्याय वाली गिग्रन्थियों को उपाध्याय निग्गंधीए कप्पड उवमायत्ताए उहिसित्तए।
के रूप में तीन वर्ष के श्रमण पर्याय वाले निर्गन्ध को स्वीकार
करना कल्पता है। पंचवासपरियाए समणे निग्गंथे सटिवासपरियाए समणीए साठ वर्ष की श्रमण पर्याय बाली निर्गन्धिनी को आचार्य या निगपीए कप्पाइ मायरिय-उबवायत्साए हिसित्तए। उपाध्याय के रूप में पांच वर्ष के श्रमण पर्याय वाले निग्रंथ को
-वच. उ. ७, सु. १६-२० स्वीकार करना कल्पता है । आयार-पकप्प-पन्भटाए जिग्गंथोए पद-वाणं विहि-णिसेहो- आचार प्रकल्प विस्मृत निम्रन्थी को पद देने का विधि
निबंध४५६. निग्गयीए-नव-इहर-तरणाए आयार-पकप्पे नार्म अन्सवणे ४५६. नवदीक्षित, बाल एवं तरुण निन्धी यदि आचार प्रकल्प परिस्मठे सिया, साय पुख्छियव्या
अध्ययन विस्मृत हो जाये तो उसे पूछना चाहिए कि"कण भे कारणेणं अज्जे । आयार-पकप्पे नाम अज्मयणे "हे आर्य ! तुम किस कारण से आधारप्रकल्प अध्ययन भूल परिम्म? ? कि आबाहेणं उबाइपमाएणं ?"
गई हो? क्या व्याधि से भूली हो या प्रमाद से ?" सा य वएन्जा "नो आबाहेणं, पमाएक" जावज्जीव तीसे यदि वह कहे कि मैं व्याधि से नहीं अपितु प्रमाद से विस्मृत तप्पत्तियं नो कप्पा पवत्तिणितं वा गगावच्छेहणितं वा हुई हूं- तो उसे उक्त कारण से जीवन पर्यन्त प्रतिनी या गणाउद्दिसित्तए वा, धारेत्तए बा।
वच्छ दिनी पद देना या धारण करना नहीं कल्पता है। सा य पएग्जा-"आबाहेणं, नो पाएण"-सा य यदि वह कहे कि-"व्याधि से विस्मृत हुई है, प्रमाद से "संवेस्सामि" ति संठवेम्जा एवं से कप्पद पत्तिणितं वा नहीं अब मैं पुनः आवारमकल्प को कण्ठस्थ कर लूंगी"-ऐसा गणावच्छेइणितं वा उद्दिसिहए था, धारेतए वा । कहकर कण्ठस्थ करले तो उसे प्रवर्तिनी या गणावच्छे दिनी पद
देना या धारण करना कल्पता है।