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चरणानुयोग-२
अनासार का निषेध
सूत्र ३५०-३५१
१६. वसट्ट-मरणागि वा, १७. तम्भव-मरगाणि था, १८, अंतोसल्ल-मरणाणि वा, १९. बेहाणस भरणाणि वा, २०. गिव पुट्ठमरणाणि वा।
(१६) विरह व्यथा से पीड़ित होकर मरना, (१७) वर्तमान 'भव को प्राप्त करने के संकल्प से मरना, (१८) तीर भाला आदि से दींधकर मरना, (१६) फांसी लगाकर मरना !
(२०) गीध आदि पक्षियों द्वारा शरीर का भक्षण करवाकर गरना।
इन आत्मघात रूप वालमरणों की तथा अन्य भी इस प्रकार है दालमों के प्रशंसा करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है।
उसे अनुयातिक चातुर्मासिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है।
अज्णयराणि वा तहप्पगाराणि बाल-मरणाणि पसंसह पसं संत बा साइज्जह।
तं सेवमाणे आवाज चाउम्मासियं परिहारट्ठाणं अघुग्घाइय।
--मि. उ. ११. सु. ६२
अनाचार
अनाचार-निषेध-१
अणायार णिसेहो
अनाचार का निषेध३५०. आवाय बंभरं च, आसुपये इमं वई।
३५०, संयम धारण कर कुशाग्र बुद्धि साधक इस अध्ययन में अस्सि धम्मे अणायार, नायरेज्ज कयाइ वि ||
कथित धर्मों में कभी भी अनाचार का आचरण न करे । - मूव. सु. २. अ. ५, गा.१ से जागमजाणं वा, कटू आहम्मियं पर्य।
जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य कर बैठे तो अपनी संबरे लिप्पमप्पागं, बीयं तं न समायरे ।।
आत्मा को उनसे तुरन्त हटा ले, फिर दूसरी बार वह कार्य
न करे। अणायार परक्कम, नेव गृहे न निण्हये।
अनाचार का सेवन कर उसे न' छिपाए और न अस्वीकार सई सया वियाभावे, असंससे जिईबिए ।। करे किन्तु सदा पवित्र, स्पष्ट, अलिप्त और जितेन्द्रिय रहे ।
-दस. अ. ८, गा. ३१.३२ मुख्छा, अविरति य णिसेहो
मूर्छा और अविरति का निषेध--- ३५१. से मिक्खू सहि अभुच्छिए, स्वेहि अमुन्छिए, गंहिं ३५१. जो भिक्षु मनोज्ञ शब्दों, कों, गन्धों, रसों एवं कोमल
अमुच्छिए, रसेहि अमुछिए, कासेहि अमुन्छिए, विरए स्पर्शों में अनासक्त रहता है तथा क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, कोहाओ, माणाओ, मायाओ, लोभाओ, पेज्जाओ, दोसाओ, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगली, परनिन्दा, संयम में अरति, कसहाओ, अभक्खाणाओ, पेसुण्णाभो, परपरिषायातो, असंयम में रति, मायामृषा एवं मिघ्यादर्शन रूप शल्य से विरत भरतिरतीओ, मायामोसाओ, मिच्छादसणसल्लाओ इति से रहता है, इस कारण से वह भिक्षु महान् कर्मों के बन्ध से रहित महता अवाणासो उपसंत जट्टिते पडिविरते ।
हो जाता है, वह सुसंयम में उद्यत हो जाता है तथा पापों से -सूय. सु. २, अ. १, सु. ६८३ निवृत्त हो जाता है।