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चरणानुयोग--२
प्रभाव निबंध
सूत्र ३६०
परिजरह से सरीरम, केसा पपरया हवन्ति ते । तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और से सोयमले य हायई, समय गोयम | मा यमायए॥ श्रोत्रीन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तु क्षण
भर भी प्रमाद मत कर। परिजरई ते सरीरयं, केसा पाणुरया हवन्ति ते तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और से चपखवले य हायई, समय गोयम | मा पमायए । चक्षुओं का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तु क्षण
भर भी प्रमाद मत कर। परिजूरह ते सरोरयं, केसा फ्र या हवन्ति ते। तेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे है और से घाणवले य हायई, समय गोयम ! मा पमायए॥ नाणेन्द्रिय का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गोतम ! तू क्षण
भर भी प्रमाद मत कर। परिजूरई से सरीरयं, कैसा पण्डरया हन्ति ते। तेरा शारीर जीण हो रहा है, केश सफेद हो रहे है और से जिम्भवले य हायई, समर्थ गोयम ! मा पमायए॥ जिह्वा का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! क्षण भर
भी प्रमाद मत कर। परिजूरह ते सरीरयं, केसा पण्डरया हवन्ति । सेरा शरीर जीर्ण हो रहा है, केश मफेद हो रहे हैं और से फासबले य हायई, ममयं गोयम | मा पमायए। स्पर्शन्द्रिय का बल श्रीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण
भर भी प्रमाद मत कर।। परिरइ ते सरीरयं, केसा पण्डरया हवन्ति ते। तेरा गरीर जीर्ण हो रहा है, केश सफेद हो रहे हैं और सारे से सत्वबले य हायई, समयं गोयम ! मा पमायए ॥ शारीर का बल क्षीण हो रहा है, इसलिए हे गौतम ! तू क्षण भर
-उत्त. अ. १०, मा. २१-२६ भी प्रमाद मत कर। अकलेवरसेणिमुस्सिया, सिटि गोषम ! लोयं गच्छसि । हे गौतम ! तू शैलेषी अवस्था प्राप्त करके निरुपद्रव खेमं च सिवं अणुसर, समय गोयम ! मा पभायए । कल्याणकारी सर्वोत्तम सिद्ध गति को प्राप्त करेगा अतः हे गौतम !
तू क्षण भर भी प्रमाद मत कर। बुद्ध परिनिटे चरे, गामगए नगरे व संजए। तू गांव में या नगर में संयत, वृद्ध और उपशान्त होकर सन्तिमगं च दहए, समयं गोयम ! मा पमायए।। विचरण कर, शान्ति मार्ग पर बढ़, हे गौतम ! तू क्षण भर भी
प्रमाद भत कर । बुद्धस्स निसम्म भासिय, सुकहियमपओचसोहियं । अर्थ और पद से सुशोभित एवं सुकथित भगवाण की वाणी राग दोसं च छिन्दिया, सिद्धिगई गए गोयमे । को सुन कर राग और द्वेष का छेदन कर गोतम स्वामी सिद्ध
--उत्त. अ. १०, गा. ३५-३७ गति को प्राप्त हुए। सध्यओ पमप्तस्स भय, सम्वो अप्पमत्तस्स गस्थि भयं । प्रमत्त को मब ओर से भव होता है, अप्रमत को कहीं से
-आ. सु. १, अ. ३, ७. ४, सु. १२९(ख) भी भय नहीं होता है। इच्चंव समुट्टिते अहोविहाराए । अंतरं च चलु इम संपेहाए। इस प्रकार चिन्तन करता हुआ मनुष्य संयम-साधना के धीरो मुहत्तमवि जो पमायए । वओ अच्चेति जोवर्ण च। लिए उच्चत हो जाए। इस जीवन को स्वर्णिम अवसर समझकर
धीर पुरुष मुहतं मात्र भी प्रमाद न करे। क्योंकि उम्र बीत रही
है, बौवन चला जा रहा है। जीविते इह जे पमता से हता छेत्ता भेत्ता लुपित्ता विलुपित्ता किन्तु जो इस जीवन के प्रति आसक्त है, वह हनन, छेदन, उद्दवेत्ता उत्तासविता, अकर करिस्सामि सि मण्णमाणे। भेदन, चोरी, लुटपाट, उपद्रव और पीड़ित करना आदि प्रवृत्तियों - आ. सु. १, अ. २, स. १, मृ. ६५-६६ में लगा रहता है। "जो आज तक किसी ने नहीं किया वह
काम मैं करूंगा" इस प्रकार का मनोरथ करता रहता है । असंवयं जीवियं मा पमायए, मरोवीयस्स हुनरिय ताणं । जीवन सांधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो। एव वियागाहि जयं पमसे, किरविहिंसा अजया गहिन्ति ।। बुढ़ापा आने पर कोई रक्षा नहीं करता है। प्रमादी, हिंसक और
-उत्त. अ.४, गा.१ अविरत मनुष्य किसकी शरण लेंगे-यह विचार करो।
अखिले उत्तवत्ता से हा पोसा