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सूत्र ४२६०४२७
आर्य आदि के अतिशय
संघ-व्यवस्था
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आचार्य के अतिशव-२
आयरियाइ अइसया
आचार्य आदि के अतिशय४२६. आयरिय-बनायस गाँत सत्त आसेसा पग्णता, ४२६. गण में आचार्य और उपाध्याय के सात अतिशय कहे गये तंजहा -
हैं, यथा१. आयरिय-उक्जमाए तो उपस्सयस्स पाए निगिन्निय- १) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के अन्दर धूल से भरे निगिग्मिय पप्कोरेमाणे वा पमज्जेमाणे वा नाकमह। अपने पैरों को पकड़-पकड़ कर कपड़े से पोंछे या प्रमार्जन करे
तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है। २. बरबरिय-उवमाए अंतो उबस्सयस उच्चार-पासवर्ग २) आचार्य ओर उपाध्याय उपाश्य के अन्दर मल-मूत्रादि विगिंघमाणे वा विसोहेमाणे वा नाइस्कमः ।
को त्यागे तथा शुदि करे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है । ३. आयरिय-उवमाए पन इन्छा यावधियं करेजा, इन्छा (३) सशक्त आचार्य या उपाध्याय इच्छा हो तो किसी की जो करेजा।
सेवा करे, इच्छा न हो तो न करे-फिर भी मर्यादा का उल्लंघन
नहीं होता है। ४. आयरिय-उवाए अंतो वस्सयस एगरायं वा दुरायं (४) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रम के अन्दर (किसी वा एगो बसमाणे नाहकमद ।
विशेष कारण से) यदि एक दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा
का उल्लंघन नहीं होता है। ५. आयरिय-उवमाए माहि वयस्सयस्स एगरायं वा दुरायं (५) आचार्य और उपाध्याय उपाश्रय के बाहर (किसी पा एगो वसमाणे नाहकमाइ।'
विशेष कारण से) यदि एक दो रात अकेले रहें तो भी मर्यादा
का उल्लंघन नहीं होता है। ६, उपकरणातिसेसे।
(६) बाचार्य और उपाध्याय अन्य साधुबों की अपेआ उज्ज्वल वस्त्र पात्रादि रखें तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं
होता है। ७. मत्तपाणालिसेसे।
(७) आचार्य और उपाध्याय संविभाग किये बिना विशिष्ट - ठाणं. ७, सु. ५७० आहार करे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं होता है । गणावच्छे यस्स गं गणसि दो अइसेसा पण्णता, तं जहा- गण में गणावच्छेदक के दो अतिणय कहे गए हैं, यधा१. गणावकछोइए अंतो उबस्सयसस एगरायं वा दुरायं वा (१) गणाबछेदक उपाधय के अन्दर (किसी विशेष कारण एगो वसमागे नाहकमद ।
मे) यदि एक दो रात अकेले रहे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं
होता है। २. गणावच्छेदए बाहि उवस्सयस्स एगरायं वा दुरायं वा (२) गणावच्छेदक उपाश्रय के बाहर (किसी विशेष कारण एगो बसमाणे नाइफमह ।
से) यदि एक दो रात अकेले रहे तो मर्यादा का उल्लंघन नहीं
–वव. उ. ६, सु. ११ होता है। इढो पगारा
ऋद्धि के प्रकार४२७. गणिही तिविहा पणत्ता, तं जहा
४२७. गणि-ऋद्धि तीन प्रकार की कही गई है, यथा--- १. गाणिबढी,
(१) ज्ञान ऋद्धि-विशिष्ट श्रुत-सम्पदा । . २. यसगिटी,
(२) दर्शन ऋद्धि-प्रभावशाली प्रवचनशक्ति आदि । ३. परिसिजदी।
(३) चारित्र ऋषि- निरतियार चारित्र प्रतिपालना ।
१
(क) ठाणं. ब.५, उ. २, सु. ४३८
(त)
ब.उ. ६, सु. १.