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इकवीस सबल दोष
अनाचार
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सव्वमेयमण्णाहणं निम्याण महेसिणं । संजमम्मि य जुसाणं लाभूयविहारिणे ॥
--दस. अ. ३, गा.१-१०
जो संयम में लीन और वायु की तरह मुक्त विहारी महर्षि निर्गन्ध हैं उनके ये सब अनाचीण हैं।
शबल दोष-६
एगवीसं सबला
इकवीस शबल दोष३६८. एगवीसं सबला पणता, तं जहा--
३६८. इक्कीस शबल दोष इस प्रकार कहे गये हैं। यथा१. हत्थकम्मं करेमाणे सबले ।
(१) हस्तकर्म करने वाला शबल दोष-युक्त है। २. मेणं एडिसेवमाणे सबले।
(२) मंयुन सेवन करने वाला शबल दोष-युक्त है । ३. राइ-भोयणं मुंजमाणे सबले ।
(३) राषि भोजन करने वाला शबल दोष-युक्त है। ४. आहाकम्म जमाणे सबले ।
(४) आधार्मिक आहार खाने वाला शबल दोप-युक्त है। ५. रायपिंड मुंजमाणे सबले ।
(५) राजपिड़ को खाने वाला शबल दोष-युक्त है। ६. उद्देसियं वा कोषं वा, पामिच्नं वा, जास्छिज्जं वा, (६) साधु के उद्देश्य से निर्मित, साधु के लिए मूल्य से अणिसिट्ठवा, अमिहरं आहट्ट विक्जमाणं वा मुंजमाणे खरीदा हुआ, उधार लाया हुआ, निर्वल से छीनकर लाया हुआ, सबले।
विना आशा के लाया हुआ या साधु के स्थान पर लाकर दिये
हुए आहार को खाने वाला शबल दोषयुक्त है। ७. अभिक्खणं-अभिक्षणं पजियाइक्खिताणं भंजमाणे सबसे। (७) पुनः पुनः प्रत्याख्यान करके आहारादि भोगने वाला
शबल दोष युक्त है। ८. अंतो छह मासाणं गणाओगणं संक्रममाणे सजले । (क) छह मास के भीतर ही एक गण से दूसरे गण में जारे
वाला शबल दोष युक्त है। ६. अंतो मासस्स तो दगले फरेमाणे सबले ।
(8) एक मास में तीन बार उदवा लेप (जल-संस्पर्ण) करने
वाला शबल दोषयुक्त है। २०. अंतो मासस्स तओ माइट्ठागे करेमाणे सयले ।
(१०) एक मास के भीतर तीन बार माया करने वाला
शवल दोष युक्त है। ११. मागारियपि भुजमाणे सबले।
(११) शय्यातर का आहारादि खाने वाला शबल दोष
- (शेष टिप्पण पिछले पृष्ठ का) बीस असमाधिस्थानों का, तीस महा मोहनीय कर्म बन्ध का, इक्कीस मबल दोषों का दशाश्रुतस्कन्ध और समवायांग में कयन है। इस प्रकार संख्या निर्देश पूर्वक अनाचारों का आगमों में अनेक जगह प्ररूप है। किन्तु दशवकालिक अ. ३ में उक्त अनाचारों के साथ संख्या का निर्देश नहीं है फिर भी इनके साथ ५२ की संख्या जोड़ दी गई है, यह उचित नहीं है । क्यों कि जहाँ पाट में संख्या का कथन न हो वहाँ अल्प या अधिक संख्या का प्ररूपण भ्रामक होता है । यदि अनाचारों की संख्या निश्चित होती तो दशवकालिक के टीकाकार या चूर्णीकार आदि व्याख्याकार संख्या का उल्लेख अवश्य करते । अथवा अन्य समवायांग आदि आगमों में भी कहीं न कहीं ५२ की संख्या का उल्लेख मिलता। किन्तु अनाचारों की निश्चित संख्या का कथन किसी भी आगम या उसके व्याख्या-ग्रन्थों में नहीं मिलता है। अतः साधु के अनाचार ५२ ही नहीं समझ लेना चाहिये किन्तु आगमों में जहाँ भी जितने भी निषिस कार्य हैं वे सभी साधु के लिए अनाचरणोय है जिनकी संख्या निर्धारित नहीं की जा सकती।