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चरणानुयोग-२
पण्डितमरण का स्थल
सत्र ३४५-३४७
जहा सागडिओ जागं, समं हिचा महापहं ।
जैसे कोई गाड़ीवान समतल राजमार्ग को जानता हुमा भी बिसम मगमोइण्णो, अक्खे मरगंमि सोयई।
उसे छोड़कर विषम मार्ग से चल पड़ता है और गाड़ी की धुरी
टूट जाने पर खेद करता है। एवं धम्मं विजयकम्म अडम्म परिवजिया ।
उभी प्रकार धर्म का उल्लंघन कर अधर्म यो स्वीकार कर, बाले मच्च-मुह पत्ते, अक्से भगो व सोयई ।।
मृत्यु के मुख में पड़ा हुआ अज्ञानी जीव धुरी टूटे हुए गाड़ीवान
की तरह खेद करता है। तओ से मरणतमि बाले सन्तस्सई भया ।
फिर मरण के समय वह अज्ञानी परलोक के भय से संत्रस्त सकाम-मरणं मरई, धुत्ते घ कलिणा जिए । होता है और एक ही दाव में हारे हुए जुआरी की तरह शोक
-उत्त. अ. ५, मा. ४-१६ करता हुआ अकाम मरण से मरता है। मे इह आरम्मणिस्सिया, आयवंड एगतलूसगा।
जो साधक इस लोक में आरम्भ में आसक्त अपनी आत्मा गंता ते पावलोगय, चिररायं अमुरियं विसं ॥ को दण्डित करते हैं तथा एकान्त रूप से जीव-हिंसक हैं वे घिर
काल तक के लिए नरकादि पापलोकों में जाते हैं तथा बे असुर
योनि में जाते हैं। गय संखयमा जोविन, तह वि य बालजणो पगम्मई। (टूटे हुए) जीवन को सांधा नहीं जा सकता है। फिर भी पश्चुप्पण्णेण कारियं, के बिछु, परलोगगामए ॥ अज्ञानी मनुष्य धृष्टता करता है, हिंसा आदि में प्रवृत्त होता है।
-सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. ६-१० मुझे वर्तमान से प्रयोजन है, परलोक को देखकर कोन लौटा है। पंडिय-मरण सरूवं
पण्डितमरण का स्वरूप-- ३४६. एयं अकाम-मरणं, बालाणं तु पवेइयं । ३४६. यह अज्ञानियों के अकाम-मरण का प्रतिपादन किया है ।
एतो सकाम-मरणं, पबियाणं सुह मे ।। अब पण्डितों के सकाम-मरण को मुझ से सुनो। मरणं पि समुग्णागं, अहा मे तमगुस्सुयं ।
जैसा मैंने सुना है कि पुण्यशाली संयमी और जितेन्द्रिय विपसण्णमणाघार्य, संजयाण सोमओ ॥
पुरुषों का पण्डितमरण होता है जो प्रसन्नता युक्त आघात रहित
होता है। न इम सम्वेसु भिक्खू सु, न इम सम्बेसु गारिसु ।
यह सकाम-मरण म सब भिक्षुओं को और न सभी गृहस्थों माणा-सोला य गारत्या, विसम-सीला य भिक्खुणो ॥ को प्राप्त होता है। क्योंकि गृहस्थ विविध प्रकार के आचार
वाले होते हैं और भिक्षु भी विषम जाचार वाले होते हैं। सम्सि एहि भिक्खूहि, गारत्या संजमुत्तरा । ___ कुछ भिक्षुओं से गृहस्थों का संयम श्रेष्ठ होता है, और सब गारयेहि य सवहि, साहको संजमुत्तरा। गृहस्थों से साधुओं का संयम श्रेष्ठ होता है।
-उत्त. अ. ५, गा. १७-२० तेसि सोच्चा सपुज्जाणं, संजयाणं सोमओ ।
उन परम पूजनीय, संयमी और जितेन्द्रिय भिक्षुओं के स्वरूप न संतसन्ति मरणन्ते, सीलवन्ता बहस्सया ॥
को सुनकर पीलवान और बहुश्रुत भिक्षु मरण काल में भी संत्रस्त
नहीं होते। तुलिया विसेसमावाय, बपा-धम्मस्स सस्तिए । ___ मेधाबी पुरुष दोनों मरणों का तुलनात्मक चिन्तन करके विष्यसीएल मेहावी, सहा-भूएणं अप्पणा ।। दयाधर्म एवं क्षमा से उपशान्त आत्मा द्वारा श्रेष्ठतम पण्डित
-उत्त. अ.५, गा. २६-३० मरण स्वीकार कर प्रसन्न रहे। मालमरण-पेडियमरण फल
बालमरण और पण्डितमरण का फल - ३४७. करवप्पमाभिओग किदिवसिय मोहमामुत। ३४७. कांदपी, आभियोगी, किल्विषिक, मोही तथा आसुरी ये एपाओ गईमो, मरणम्मि बिराहिया होम्ति ।।
पाँच भावनाएँ दुर्गति की हेतुभूत हैं। मृत्यु के समय ये सम्यक् दर्शन भादि की विराधना करती है।