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५८ [ चरणानुयोग : प्रस्तावना सम्बन्धी विविध सिद्धांतों और समस्याओं का स्पष्टतापूर्वक हार का अर्थ अनवस्थाप्य ही हो सकता है। इस प्रकार तत्वार्थ विवेचन बहत्कल्प भाष्य, निधीयभाष्य, व्यवहारभाष्य, निणीय- और मूलाचार दोनों तप और परिहार को अलग-अलग मानते हैं पणि, जीतकल्पभाष्य एवं जीतकल्पचूणि में उपलब्ध होता है। और दोनों में उसका अर्थ अनवस्थाप्य के समान है। यद्यपि जहाँ तक प्रायश्चित्त के पकारों का प्रश्न है, इन प्रकारों का दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थ धवला १७ में स्थानांग और जीतकल्प उल्लेख श्वेताम्बर बागम स्थानांग, बृहत्कल्प, निशीथ और जीत के समान ही १० प्रायश्चित्तों का वर्णन है और उनके नाम भी कल्प में, यापनीय ग्रन्थ मूलाचार में, दिगम्बर ग्रन्थ जयधवला में वे ही हैं। इस प्रकार जहाँ धवला श्वेताम्बर परम्परा से संगति तथा तत्वार्थ सूत्र एवं उसकी श्वेताम्बर और दिगम्बर आचार्यों रखती है, वहाँ मूलाचार और तत्वार्थ कुछ भिन्न हैं। सम्भवतः की टीकाओं में मिलता है।
ऐसा प्रतीत होता है कि जीतकल्प सूत्र के उस्ले लानुसार जब स्थानांग सूत्र में प्रायश्चित्त के विभिन्न प्रकारों का उल्लेख अनवस्थाप्य और पारांचिक इन दोनों प्रायश्चित्तों को भद्रबाह हया है, उसके तृतीय स्थान में ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त के बाद व्यवच्छिन्न मान लिया गया या दुसरे शब्दों में इन प्रायऔर चारित्र-प्रायश्चित्त ऐसे तीन प्रायश्चित्तों का उल्लेख हुआ श्चित्तों का प्रचलन बन्द कर दिया गया तो इन अन्तिम दो है। इसी तृतीय स्थान में अन्यत्र बालोचना, प्रतिक्रमण और प्रायश्चित्तों के स्वतन्त्र स्वरूप को लेकर मतभेद उत्पन्न हो गया तदुभय ऐसे प्रायश्चित्त के तीन रूपों का भी उल्लेख हुआ है । और उनके नामों में अन्तर हो गया। मूलाचार के अन्त के परिइसी आगम ग्रन्थ में अन्यत्र छ:, आठ और नौ प्रायश्चित्तों का हार का जो उल्लेख है वह अनवस्थाप्य से कोई भिर नहीं कहा भी उल्लेख हुआ है, किन्तु ये सभी प्रायश्चित्तों के प्रकार उसके जा सकता, किन्तु उसमें बद्धान प्रायश्चित्त का क्या तात्पर्य है दशम् स्थान में जो दशविध प्रायश्चित्तों का विवरण दिया गया यह न तो मूल ग्रन्थ से और न उसकी टीका से ही स्पष्ट होता है उसमें समाहित हो जाते हैं। अतः हम उनकी स्वतन्त्र रूप से है। यह अन्तिम प्रायश्चित्त है, अत: कठोरतम होना चाहिये। चर्चा न करके उसमें उपलब्ध दशविध प्रायश्चित्त को चर्चा इसका अर्थ यह माना जा सकता है कि ऐसा अपराधी व्यक्ति जो करेंगे
श्रद्धा से रहित मानकर संघ से पूर्णतया बहिष्कृत कर दिया स्थानांग, जीतकल्प और धवला में प्रायश्चित्त के निम्न दस जाये क्रिन्तु टीकाकार वसुनन्दी ने श्रद्धान का अर्थ तरवरुचि एवं प्रकार माने गये हैं
क्रोधादि त्याग किया है। इन प्रायश्चित्तों में जो क्रम है वह (१) आलोचना, (२) प्रतिक्रमण, (३) उभय, (४) विवेक, सहजता से कठोरता की ओर है अतः अन्त में श्रद्धा नामक सहज (५) व्युत्सर्ग, (६) तप, (७) छेद, (८) भूल, (8) अनवस्थाप्य प्रायश्चित्त को रखने का कोई औचित्य नहीं है। वस्तुतः जिन
और (१०) पापंचिक । यदि हम इन दस नामों की तुलना प्रवचन के प्रति श्रद्धा का समाप्त हो जाना ही वह अपराध है, मापनीय ग्रन्थ मूलाचार और तत्वार्य सूत्र से करते हैं तो मूला- जिसका देण्ड मात्र बहिष्कार है। अतः ऐसे श्रमण की श्रद्धा जब चार में प्रथम माठ नाम तो जीतफल्प के समान ही हैं मिन्तु तक सम्यक् नहीं है तब तक उसे संघ से बहिष्कृत रखना ही इस जीतकल्प के अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार और पारांचिक प्रायश्चित्त का तात्पर्य है। के स्थान पर श्रद्धान का उल्लेख हुआ है। मूलाचार श्वेताम्बर प्रायश्चित्त का सर्वप्रथम रूप वह है जहाँ साधक को स्वयं परम्परा से भिन्न होकर तप और परिहार को अलग-अलग ही अपने मन में अपराधबोध के परिणामस्वरूप आश्मग्लानि का मानता है। तत्वार्थ सूत्र में तो इनकी संख्या नौ मानी गई है। भाव उत्पन्न हो । वस्तुतः आलोचना का अर्थ है अपराध को इसमें सात नाम तो जीतकल्प के समान ही है किन्तु मूल के अपराध के रूप में स्वीकार कर लेना। आलोचन शब्द का अर्थ स्थान पर उपस्थापन और अनपस्थाप्य के स्थान पर परिहार का देखना, अपराध को अपराध के रूप में देख लेना ही आलोचना उल्लेख हुआ है। पारांचिक का उल्लेख तत्वार्थ में नहीं है अतः है। सामान्यतया वे अपराध जो हमारे दैनन्दिन व्यवहार में वह नो प्रायश्चित्त ही मानता है। श्वेताम्बर आचार्यों ने तप और असावधानी (प्रमाद) या बाध्यतावश घटित होते हैं, आलोचना परिहार को एक माना है, किन्तु तत्वार्थ में तप और परिहार नामक प्रायश्चित्त के विषय माने गये हैं। अपने द्वारा हुए अपराध दोनों स्वतन्त्र प्रायश्चित्त माने गये हैं, अत: तत्वार्थ में भी परि- या नियम भंग को आचार्य या गीताई मुनि के समक्ष निवेदित
३ वही १०/७३ ।
१ स्थानांग ३/४७०।
२ वही ३/४४ । ४ (अ) स्थानांग १०/७३, (ब) जीतकल्पसूत्र ४, (स) धवला १३/५, २६/६३/१ । ५ मूलाचार ५/१६५।
६ तस्वार्थ /२२॥ ७ जीतकल्पभाष्य २५८६, जीतकल्प १.२।