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सवायरण : एक बौद्धिक विमर्श | ७३
पर्वत से फिसलने समय भिक्षा मी . या आदि जो भूत्यू स्वीकार करने में असमर्थ होने के कारण शीलभंय करे को सहारा ले सकता है। जल में बहले हुए साधु-साध्वी की तो इस स्थिति में शीलभंग करने वाले भिक्ष के मनोभावों को रक्षा के लिए नदी आदि में उत्तर सकता है।
लक्ष्य में रखकर ही प्रायश्चित्त का निर्धारण किया जाता है। इसी प्रकार उत्सर्ग मार्ग में स्वामी की आशा विना भिक्ष जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर सर्वाधिक बल दिया के लिए एक तिनका भी अग्राह्य है। दावकालिक' के अनुसार इसलिए उन्होंने न केवल मैथुन सेवन का निषेध किया अपितु श्रमण अदत्तादान न स्वयं ग्रहण कर सकता है, न दूसरों से ग्रहण भिक्ष के लिए नवजात कन्या का और भिक्ष भी के लिए नवजात करवा सकता है और न अदत्त ग्रहण करने वाले का अनुमोदन शिशु का स्पर्श भी वर्जित कर दिया । आयमों में उल्लेख है कि ही कर सकता है। परन्तु परिस्थितिवश अपवाद मार्ग में भिक्ष भिक्षणी को कोई भी पुरुष चाहे बह उसका पुत्र या पिता ही के लिए अयाचित स्थान आदि ग्रहण के उल्लेख हैं। जैसे भिक्ष, क्यों न हो, स्पर्श नहीं करे किन्तु अपवाद रूप में यह बात स्वीभयंकर शीतादि के कारण या हिंसक पशुब्बों का भय होने पर कार की गई कि नदी में डूबती हुई या विक्षिप्त चित्त भिक्षणी स्वामी की आज्ञा लिए बिना ही ठहरने योग्य स्थान पर ठहर को मिक्ष स्पर्श कर सकता है। इसी प्रकार सर्पदंश या काटा जाए तत्पश्चात् स्वामी की आज्ञा प्राप्त करने का प्रयत्न करें। लग जाने पर उसकी चिकित्सा का कोई अन्य उपाय न रह जाने
जहाँ तक ब्रह्मचर्य सम्बन्धी अपवादों का प्रपन है उस पर पर भिक्ष या भिक्ष जी परस्पर एक दूसरे की सहायता कर हमें दो हुष्टि से विचार करना है। जहाँ अहिंसा, सत्य आदि सकते हैं। व्रतों में अपबाद मार्ग का सेवन करने पर बिना तप-प्रायश्चित्त यह स्मरण रखना चाहिए कि उक्त अपदाद ब्रह्मचर्य के के भी विशुद्धि सम्भव मानी गई है वहाँ ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में खण्डन से सम्बन्धित न होकर स्त्री-पुरुष के परस्पर स्पर्श से सप प्रायश्चित्त के बिना विशुद्धि को सम्भव नहीं माना गया है। सम्बन्धित है 1 निशीथ भाष्य और वृहत्कल्पभाष्य के अध्ययन से ऐसा क्यों किया गया इस सम्बन्ध में जैनाचार्यों का तर्क है कि स्पष्ट हो जाता है कि जैनाचार्यों ने ब्रह्मचर्य की सुरक्षा पर
हिंसा आदि में राग-द्वेषपूर्वक भोर राग'ष रहित' दोनों ही कितनी गहराई से विचार किया। जैनाचार्यों ने इस प्रश्न पर / प्रकार की प्रतिसेवना सम्भव है और यदि प्रतिसेवना रागदप से भी विचार किया कि एक ओर व्यक्ति शीलभंग नहीं करना
रहित है तो उसके लिए विशेष प्रायश्चित नहीं है किन्तु मैथुन चाहता किन्तु दूसरी ओर वासना का आवेग इतना लीन होता का सेवन राम के अभाव में नहीं होता अतः महह्मचर्य व्रत की है कि वह अपने पर संयम नहीं रख पाता। ऐसी स्थिति में क्या स्खलना में तप-प्रायश्चित्त अपरिहार्य है। जिस स्खलना पर तप किया जाये ? प्रायश्चित्त विधान हो उसे अपवाद गार्ग नहीं कहा जा सकता। ऐसी स्थिति में जैनाचार्यों ने सर्वनाश की अपेक्षा अर्द्ध निशीथ भाष्य के आधार पर पं. दलसुख भाई मालबणिया का विनाश की नीति को भी स्वीकार किया है। इसी प्रसंग में जैनाकथन' है कि यदि हिसा आदि दोषों का सेवन संयम के रक्षण चार्यों ने यह उपाय भी बताया है कि ऐसे भिक्ष अथवा भिक्षणी हेतु किया जाय तो तप प्रायश्चित्त नहीं होता किन्तु अब्रह्मचर्य को अध्ययन, लेखन, यावृत्य आदि कार्यों में इतना व्यस्त कर सेवन के लिए तो तप या छेद प्रायश्चित आवश्यक है। दिया जाये कि उसके पास काम वासना जगने का समय ही न
पद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत की स्खलना पर प्रायश्चित्त विधान होने रहे। इस प्रकार उन्होंने काम वासना पर विजय प्राप्त करने के से ब्रह्मचर्य का कोई अपवाद स्वीकार नहीं किया गया है, किन्तु उपाय भी बताए। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जैनाचार्यों ने उन सब परिस्थितियों सामान्यतया भिक्ष के लिए परिग्रह के पूर्णत: त्याग का पर विचार नहीं किया है जिनमें कि जीवन की रक्षा अथवा विधान है और इसी आधार पर अचेलता की प्रशंसा की गई है। संघ की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने के लए शीलभंग हेतु विवश सामान्यतः आचारांग आदि सूत्रों में भिक्ष के लिए अधिकतम होना पड़े। निशीथ और बृहत्कल्पभाष्य में यह उल्लेख है कि तीन वस्त्र और अन्य परिमित उपकरण रखने को बनुमति है यदि ऐसा प्रसंग उपस्थित हो जहाँ शीलभंग और जीवन-रक्षण किन्तु यदि हम मध्यकालीन जैन साहित्य का और साधु जीवन में से एक ही विकल्प हों तो ऐसी स्थिति में श्रेष्ठ तो यही है का अध्ययन करें तो यह स्पष्ट लगता है कि धीरे-धीरे भिक्ष, कि व्यक्ति मृत्यु को स्वीकार करे और भीलभंग न करे, किन्तु जीवन में रखने योग्य वस्तुओं की संख्या बढ़ती गई है। अन्य भी
१ दशवकालिक ६, १४ । ३ निशीथ : एक अध्ययन, पृ. ६८॥ ५ बृहत्कल्पभाष्य गाथा ४६४६-४९४७।
२ व्यवहार सूत्र उद्दे. । ४ निशीथ गाथा ३६६-७ ।