________________
सूत्र
१
भिक्षु के लक्षण
संयमी जीवन
[२५
मन्तं मूसं विविहं वेचिन्तं,
जो मन्त्र प्रयोग, जड़ी बूटी प्रयोग अनेक प्रकार की चिकित्सा बमणविरेयणधूमणेत्तसिणाणं । वमन, विरेचन, धूम्र प्रयोग, मन्त्रित जल से स्नान प्रयोग तथा आउरे सरणं तिपिन्छियं च,
रोगातुर होने पर स्वजन की शरण व चिकित्सा-- इनका परितं परिप्राय परिवए स मिक्खू ।। त्याग कर जो संयम मार्ग में विचरण करता है-वह भिक्षु है। खरितयगगनगरायपुत्ता,
क्षत्रिय राजा, गणराजा, आरक्षकादि कुल, ब्राह्मण, भोगमाहणभोहय त्रिविहाय सिप्पिणो । कुल के पुत्र, विविध प्रकार के शिल्पी, उनकी जो पलाघा और नो सेसि वयद सिलोगपूर्व,
पूजा नहीं करता है किन्तु उनका परित्याग कर जो संयम मार्ग त परिनाय परिवए स भिक्खू ।। में विचरण करता है-वह भिक्षु है। गिहिणो जे पवइएण दिट्टा,
जो गृहस्थ पद्रजित होने के पश्चात् परिचय में आये हों अप्पच्वइएण व संथ्या हविज्जा। अथवा गृहस्थ अवस्था के परिचित हों उनके साथ इहलौकिक तेसिं ह लोइयफलट्ठा,
फल की प्राप्ति के लिए जो परिचय नहीं करता-वह भिक्षु है। जो संथवं न करेइ स भिक्खू ॥ सपणासणपाणभोयणं,
शयन, आसन, पान, भोजन और विविध प्रकार के खाद्यविविहं खाइम साइमं परेसिं। स्वाद्य गृहस्थ न दे तथा मांगने पर भी इन्कार हो जाये. उस अदए पडिसेहिए नियाले,
स्थिति में जो निग्रन्थ प्रवष न करे–बह भिक्षु है। जे तत्य न पउस्सई स भिक्खू ।। जं किचि आहारपाणगं,
गृहस्थों से जो कुछ आहार, पानी और विविध प्रकार के विविहं खाइमं साइम परेसि लड़। खाद्य-स्वाश्च प्राप्त कर जो मन, बनन, काया से अनुकम्पित न हो जो तं तिविहेण नाणु कम्पे,
मर्थात् विचलित न हो और जो मन, वचन, काया से सुसंवत ___ मणवयकाय-सुसंधुडे स भिक्खू ॥ रहे-वह भिक्षु है। आयामगं व अबोवणं च,
ओसामन, जी का दलिया, ठण्डा बासी आहार, कांजी का सीयं च सोधीर जयोदगं । पानी, जौ का पानी, ऐसी नीरस भिक्षा की जो निन्दा नहीं नो होलए पिण्डं नीरसं तु.
करता, अपितु जो सामान्य घरों में भिक्षा के लिए जाता है-यह पन्तंकुलाई परिवए स मिक्खू ॥ भिक्षु है। सहा विविहा भवन्ति लोए,
लोक में देवता, मनुष्य और तियंचों के अनेक प्रकार के दिवा माणुस्समा तहा तिरिछा । रौद्र, अत्यन्त भयंकर और अद्भुत शब्द होते हैं, उन्हें सुनकर जो भीमा मयमेरमा उराला,
नहीं डरता है-वह भिक्षु है। जो सोच्चा न घिहिज्जई स भिक्ख ।। बाद विविहं समिच्च लोए,
लोक में विविध प्रकार के वादों को जान कर ज्ञानादि से सहिए खेयाणुगए । कोवियप्पा। युक्त होकर संवम का पालन करते हुए जिरो आगम का परम पाने अमिभूय सम्बवंसी उबसन्ते,
अर्थ प्राप्त हुआ है, जो प्राज्ञ है, परोषही को जीतने वाला है अविडए स भिक्खू ।। और सब जीवों को आत्म-तुल्य समझने वाला है, जो उपशान्त
और किसी को भी अपमानित न करने वाला है-वह भिक्षु है । असिप्पज यो अगिहे अमित्ते,
जो शिल्प-जीवी नहीं होता है, जिसके घर नहीं होता है, जिहन्दिए सवओ निष्पमुक्के । जिसको मिष नहीं होते, जो जितेन्द्रिय होता है, सब प्रकार के अणुक्कसाई लहुअप्पमक्खी चेच्चा,
परिग्रह से मुक्त होता है, जिसका कषाय पन्द होता है, जो योड़ा गिहं एगचरे स भिक्खू ॥ और निस्सार भोजन करता है, जो घर को छोड़ अकेला विच
--उत्त. अ. १५. मा. १-१६ रता है-वह भिक्षु है। हिरणं जायव मणसा वि न पत्थए ।
ऋय और विक्रय से निवृत्त, मिट्टी के देने और सोने को समलेठकषणे भिषन, बिरए कयविषकए॥ समान समलने वाला झिक्ष सोने और चांदी की मन से भी
--प्रत्त. भ. ३५, गा.१३ इच्छा न करे।
..
.