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चरणानुयोग – २
संबुभिरसफ
१२५.
समिक्ष
अबोलिए।
तं संजम ओषचिज्जइ मरणं हेच वयंति पंडिता ॥ - भूय. मु. १. अ. २, उ. ३. गा. १
गिग्यं पुत्ति
३८. साई से
संत भिक्षु का फल
अरति-रति फाइसिनो
वेदेति, जागर - वेरोबर बीरे । एवं बुक्खा पमोक्खसि । -- आ. सु. १, अ. १, ७ १, १०७ (ब)
उ सु.
सुसमणस् समाहितह कुसमपरम असमाहि १२६. अहो रातो पम्मिं । समहिमापातमवता, सत्थारमेव फक्सं वति ॥
विसोते असे जे आताच विपाना अट्टाए होति बहुगुणा जे पाणसंकाए सं वक्शा ||
जेवावा पचिति आदानमचर्यति । असाणो से साधुमागी, मायणि एहिति ॥
जनभासी व उदीरा अंधे से गाय, अबिजोरिए, घास पावकम्मी ||
जे विग्गहीए अायमासी ओवायकारो य हिरोमणे य
न से समे होति अपत्ते ।
एतदिट्ठी य अमाइये ||
से पेसले सुहुने पुरिसजाते, बहुप असा तया
जब मारे ।
समे हु से होति अपते ॥
जे आदि अध्यं वसुमं ति मत्ता, सवेण वा सहजति मत्ता,
संवाद अपरिन्छ फुज्जा ।
अण्णं जणं परसति विबभूतं ॥
सूत्र १३७-१३८
संवृत भिक्षु का फल -
१३७. अष्टविध कर्मों का आगमन जिसने रोक दिया है। ऐसे निक्षु की अज्ञानवश जो दुख स्पृष्ट हो चुका है, वह संयम से क्षीण हो जाता है। वे पण्डित मृत्यु को छोड़कर मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । निषेध की मुक्ति
१३० निर्ग्रन्थ सर्दी और गर्मी को सहन करता है, अर्शत और रति को सहन करता है, कष्ट का वेदन नहीं करता । जागृत रहता है और पैर से उपरत होता है, वह शेर दुख से मुक्त हो जाता है |
सुक्षमण की समाधि और कुमण की समाधि१३६. दिन-रात सम्यक् रूप से अनुष्ठान करने में उद्यत, तीर्थकरों से उदार धर्म को पाकर उनके द्वारा कथित माध का सेवन न करते हुए कुछ अविनीत शिष्य अपने धर्मोपदेशक को ही कठोर शब्द कहते हैं ।
जो शुद्ध वीतराग भार्ग से विपरीत अपनी रुचि के अनुसार प्ररूपणा करते हैं तथा तीर्थंकर के ज्ञान में शंका करके मिथ्याभाषण करते हैं वे उत्तम गुणों के पात्र नहीं होते हैं
जो पूछने पर अपने गुरु आदि का नाम छिपाते हैं, वे मोक्ष से अपने आप को वंचित करते हैं। वे वस्तुतः इस जगत् में असा होते हुए भी स्वयं को बाधु मानते हैं ऐसे मायादी अनन्त बार जन्म मरण को प्राप्त होते हैं ।
जो पुरुष क्रोधी है, परदोषभाषी है, जो उपशान्त हुए कलह को फिर जगाता है, वह पापकर्मी, सदा कलहग्रस्त व्यक्ति, संकड़ी पगडंडी से जाते हुए अंधे की तरह दुःख का भागी होता है।
जो साधक कलह करता है, न्याय विरुद्ध बोलता है, वह मध्यस्थ नहीं हो सकता है तथा कलह रहित भी नहीं होता किन्तु जो गुरु के निर्देशानुसार चलने वाला, पाप कार्य से लज्जित होने वाला, जीवादि तत्वों में निश्चित दृष्टि वाला तथा माया रहित व्यवहार जाना होता है।
भूल होने पर आचार्य आदि के द्वारा अनेक बार अनुशासित होकर भी वो अपनी लेश्या शुद्ध रखता है, वह सुसाधक मृदुभाषी या विमादिगुणयुक्त है। सूक्ष्माद है, संयम में पुरुषार्थी है, उत्तम जाति से समन्वित और साध्वाचार में सहज सरल भाव से प्रवृत रहता है मध्यस्थभाव युक्त और मायादि कपाय से रहित होता है।
जो अपने आप को संयम एवं ज्ञान का धनी मानकर अपनी परीक्षा किये बिना ही किसी के साथ बाद छेड़ देता है, अथवा अपनी प्रशंसा करता है, तथा "मैं महान् तपस्त्री हूँ", इस प्रकार के मद से मत्त होकर दूसरे व्यक्ति को जल में पढ़े हुए चन्द्रमा के प्रतिदिन की तरह निश्क समझता है।