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परणानुयोग-२
ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ
सूत्र २९२.२६३
उ.--गोयमा! एतसो से पाये कम्मे कम्ना, गत्वि से काह निक्जरा कज्जद
–वि. स.८, उ.६, सु. ३
उ०--गौतम ! उसे एकान्त पाप कर्म होता है, निर्जरा कुछ भी नहीं होती।
धावक प्रतिमा-३
एगावस-उवासगपडिमाओ
ग्यारह उपासक प्रतिमायें२६३. एक्कारस उवासग-पडिमाओ पपणताओ तं जहा- २६३. ग्यारह उपासक प्रतिमायें कही गई है। यथा(१) बसणसावए,
(१) दर्शन श्रावक प्रतिमा, (२) कयन्वयकम्में,
(२) कृतवत कम प्रतिमा, (३) सामाइयको,
(३) सामायिक कृत प्रतिमा, (४) पोसहोववासणिरते,
(४) पौषधोपवास निरत प्रतिमा, (५) दिया बंभयारी, रति परिमाणकरें,
(५) दिवा ब्रह्मचारी और रात्रि परिमाणकृत प्रतिमा । (६) असिणाली, विउमोह, मोलिका, विमा वि रामो (६) अस्नान, दिवस भोजन, मुकुलिकृत, दिवा-रात्रि ब्रह्मवि बंभषारी।
चयं प्रतिमा। (७) सचिसपरिणाए,
(७) सचित्त परित्याग प्रतिमा । (८) आरंभपरिणाए,
(4) थारम्भ-परित्याग प्रतिमा । (६) पेसपरिणाए,
(8) प्रेष्य-परित्याग प्रतिमा । (१०) उद्दिभत्तपरिणाए,
(१०) उद्दिष्ट भक्त-परित्याग प्रतिमा । -- --..-- यहाँ संरत को सुगुरुभाव से सन्मान करके सर्वथा निर्दोष आहार देने का फल श्रमणोपासक के लिए एकान्त निर्जरा कहा है। सामान्य सदोष आहार देने का फल' अल्प पाप अधिक निर्जरा कहा है और तयारूप के (सन्यासी) असंयत को पूज्य भाव से सदोष-निर्दोष आहार देने का फल एकान्त पाप कहा है। किन्तु अन्य असंयत भिखारी पशु-पक्षी आदि को अनुकम्पा बुद्धि से आहार देने का फल श्रमणोपासक के लिए यहाँ एकान्त पाप नहीं कहा है। आगमों में नौ प्रकार के पुण्यों का कथन है। 'रायप्पसेणिय' सूत्र में प्रदेशी राजा ने श्रमणोपासक होने के बाद दानशाला प्रारम्भ की ऐसा वर्णन है। दान के सम्बन्ध में मुनियों के मौन रहने का जो सूत्रकृतांग में विधान है वहाँ यह स्पष्ट कहा है कि "दान के कार्यों में पुण्य नहीं है" ऐसा भी साधु म कहे तथा ऐसा कहने वाले मुनि प्राणियों की आजीविका का नाश करते हैं । निष्कर्ष यह है कि असंयत भिखारी पशु पक्षी आदि को अनुकम्पा बुद्धि से आहार देने का फल एकान्त पाप नहीं है। किन्तु
तथारूप के संन्यासी आदि को पूज्य भाव (गुरुबुद्धि) से देने में एकान्त (मिथ्यात्वरूप) पाप होता है ऐसा समझना चाहिए। २ दसा. द ६, सु. १-२
पांचवीं प्रतिमा का नाम दशाश्रुतस्कंध में और समवायोग में भिन्न-भिन्न है। किन्तु वर्णित विषयानुसार दशाश्रुतस्कंध में कथित नाम विशेष संगत प्रतीत होता है। "एक रात्रि की कायोत्सर्ग-प्रतिमा" यह नाम दशाश्रुतस्कंध सूत्र के मूल पाठ में है। इस प्रतिमा में श्रावक पोषध के दिन सम्पूर्ण रात्रि कायोत्सर्ग करता है। समवायांग सूत्र में सूचित नाम उपयुक्त भी नहीं है । क्योंकि "दिन में ब्रह्मचर्य पालन करना और रात्रि में परिमाण करना" यह तो प्रतिमा धारण के प्रारम्भ में ही आवश्यक होता है । अतः पाँचवी प्रतिमा में इस नियम का कोई महत्व नहीं रहता है ।