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चरणानुयोग-२
निग्रंथ-निर्ग्रन्थी के द्वारा परदेषी परिचारणा का निवान करना
एवं खलु समणाउसो ! तस्स णियाणस्स इमेयारूये पावए हे आयुष्मान् धमणो ! उस निदान का यह पापकारी परिफल-विधागे-जं नो संचाएइ केलिपम्पत्तं धम्म पडिसु- णाम है कि वह केवल प्रजप्त धर्म का श्रवण भी नहीं कर गिसए।
-दसा. द, १०, सु. १३-३४ सकता है ।। (५) णिग्गय णिग्गंयोए परदेवी परिचारणा निदान करणं- (१) निर्ग्रन्थ निग्रन्थी के द्वारा परदेवी परिचारणा का
निदान करता३३४. एवं तु समकाउसो ! मए धम्मे पणते इणमेव णिग्गंधे ३३४. हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है। पावणे सच्चे-जाब'-सव्वदुक्खाणमंत करति ।
यही निग्रंथ प्रवचन सत्य है-यावत्-सब दुःखों का अन्त
करते हैं। जस्स णं धम्मस्स निग्गयो बा निग्गंधी वा सिखाए उपढ़िए कोई निग्रन्थ या निम्रन्त्री केवलि प्रज्ञप्त धर्म की आराधना विहरमाणे-जाव'-से य परक्कममाणे माणुस्सेहि काममोगेहिं के लिए उपस्थित हो विचरण करते हुए -मावत-संगम में निव्वेयं गच्छेज्जा -
पराक्रम करते हुए मानुषी कामभोगों से विरक्त हो जाये और
वह यह सोचे कि - "माणुस्समा खलु काममोमा अधूया, अणितिया, असासया, "भानव सम्बन्धी कामभोग अधब हैं. अनित्य हैं, अशाश्वत सण-पण विद्धसणधम्मा ।
हैं, सड़ने गलने वाले एवं नश्वर हैं। "उदार-पासवण-खेल-जल्ल-सिंघाणग-वत-पिगमए गोपिय- मामूर ग्लेग पेन्द्र, रजि-नफ, शुक्र एवं शोणित से समुम्भवा ।
उद्भून हैं। दुरुव-उस्सास-मिस्सासा, दुरंत-मुस-पुरिस-पुण्णा, वंतासवा दुर्गन्ध युक्त श्वासोच्छ्वास तथा मल-मूत्र से परिपूर्ण हैं। पिसासवा, खेलासवा, पच्छा. पुरं. अवर्स बिप्पजह- वात-पित्त और कफ के द्वार हैं। पहल या पीछे से अवश्य णिज्जा ।"
त्याज्य हैं। संति उठं देवा देखलोयसि,
जो ऊपर देवलोक में देव रहते हैं - ते गं तत्थ अण्णेसि देवाण देवोओ अभिजिय अभिजंजिय वे वहाँ अन्य देवों की देवियों को अपने अधीन करके उनके परियारति अप्पणो व अस्पाणं विविय-बिउब्विय परिया- साथ विषय सेवन करते हैं, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के रेति, अप्पणिज्जियाओ देवीओ अमिज़ुजिय-अपिजंजिय साय विषय सेवन करते हैं और अपनी देवियों के साथ भी विषय परियारेति ।
सेवन करते हैं। "जइ इमस्स सुचरिय-तव-नियम-बमरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक् प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एव फल-वित्ति विसेसे अस्थि तं अहमति आगमेस्साए इमाई ब्रह्मचर्य पालन का विशिष्ट फल हो तो मैं भी भविष्य में इन एयारुवाई विश्वाई भोगाई मुंजमाणे विहरामि- सेत उपरोक्त दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरण करूं तो यह श्रेष्ठ साहू।"
होगा।" एवं खलु समणाउसो । णिगंथो वा जिग्गंयो वा णियाण हे आयुष्मान् श्रमण ! इस प्रकार निग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा जाव' वे भवह महिडितए जाव विवाह भोगाई (कोई भी) निदान करके-यावत्-देव रूप में उत्पन्न होता है। मुंजमाणे विहह।
वह यहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है--यावत-दिव्य भोगों
को भोगता हुआ विचरता है। से गं तस्य अण्णेसि देवाणं देवीओ अभिजिय अभिजुजिप यह देब वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन परियारेइ, अप्पगो चेव अप्पाणं विउविय-विउरिचय परिया- करता है। स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय रेड, अप्पणिज्जियाओ देवीसी अभिजुजिय-अभिजंजिप सेवन करता है। और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन परियारे।
करता है।
१-४ प्रथम निदान में देखें।