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धरणानुयोग-२
निग्रन्य-निग्रन्थी द्वारा स्वबंधी परिवारणा का निदान
सूत्र ३३५
एवं खलु समणाउसो! भिगंथो वा णिगंथी या णियाणं हे आयुष्मान् श्रमणो ! इस प्रकार निर्ग्रन्थ या निम्रन्थी किच्चा-जाव'-देवे मवह महिरिए-जाव-विवाई, भोगाई (कोई भी) निदान करके-यावत-देव रूप में उत्पन्न होता मुंजमाणे विहरद।
है। वह वहाँ महाऋद्धि वाला देव होता है-यावत्-दिव्य
भोगों को भोगता हुबा विषरता है। से णं तत्य णो अण्णेसि देवाण वेवीओ अभिभुजिय-अभिमुंजिय वह देव वहाँ अन्य देवों की देवियों के साथ विषय सेवन परियारेड, अप्पगो चेव अप्पाणं विउम्विय विविय परिया- नहीं करता है, स्वयं ही अपनी विकुक्ति देवियों के साथ विषय रेड, अप्पणिजयाओ देवीओ अमिजंजिय-अभिजुजिय परि- सेवन करता है और अपनी देवियों के साथ भी विषय सेवन यारोह।
करता है। से गं ताबो देवलोगायो आउखएणं-जाव' पुमत्ताए पस्चा- यह देव उस देवलोक से वायु के क्षय होने पर-यावत्-- याति-जाव -तस्स गं एगमवि आणवेमाणस्स-जाव-सत्तारि पुरुष रूप में उत्पन्न होता है यावत्-उसके द्वारा एक को पंच अबुसा व आमदति "भण घेवाणुप्पिया ! कि बुलाने पर चार-पांच बिना बुलाये ही उठकर खड़े हो जाते हैं करेमो 7-जाद-किं ते भासगस्स सया।"
और पूछते हैं कि -"हे देवानुधिय ! कहो हम क्या करें ?
-- यावत्-आपके मुख को कौन से पदार्थ अच्छे लगते हैं ?" प०-तस्स गं तहप्पगारस्स पुग्सिजायस्स तहासवे समये प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुरुष को तप-संयम के
वा माहणे वा उमओ कालं केवली पण्णसं धम्म- मूतं रूप श्रगण माहन उभयकाल केवलि प्राप्त धर्म कहते हैं ?
माइक्खेज्जा? उ०-हंता ! आइखेम्जा ।
उ०-हाँ कहते हैं। प-से ण पडिसुणेज्जा ?
प्र०-क्या वह सुनता है ? उ.-हता पडिसुणेजा।
उ०-हाँ सुनता है। प०- से गं सद्दहेज्जा पतिएज्जा रोएग्जा?
प्र०—क्या वह श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करता है? उ.-णो तिण? समट्ट, अण्णस्य रुई यावि भवति । उ०-यह सम्भव नहीं है, किन्तु वह अन्य दर्शन में रुपि
रखता है। अपणहमायाए से भवति...
___ अन्य दर्शन को स्वीकार कर बह इस प्रकार के आचरण
वाला होता हैजे इमे भारणिया, आयसहिया, गाभतिया, कण्हुइ जैसे कि ये पर्ण कुटियों में रहने वाले अरण्यवासी तापस रहस्सिया । णो बहु-संजया, जो बह-परिविश्या और ग्राम के समीप की वाटिकाओं में रहने वाले तापस तथा सम्व-पाण-मय-जीब-सत्तेसु, अपणो समचामोसाई अदृष्ट होकर रहने वाले जो तांत्रिक हैं, असंयत हैं। प्राण, मून, एवं विपरिवति
जीव और सत्व की हिंसा से विरत नहीं है । वे सत्य-मृषा (मिन
भाषा) का इस प्रकार प्रयोग करते हैं कि"अहं गं तब्दो, अणे हतब्वा ।
"मुझे मत मारी, दूसरों को मारो, महंण अम्जावेयष्यो, अम्पे अक्जायम्वा,
मुग्ने आदेश मत करो, दूसरों को आदेश करो, अहं परियावयम्बो, अव्यये परियायम्वा,
मुझ को पीड़ित मत करो, दूसरों को पीड़ित करो, अहं पं परिघेतथ्वी, अण्णे परिघेतम्बा,
मुझ को मत पकड़ो, दूसरों को पकड़ो, अहं गं उपयष्यो, अण्णे उबहवेयम्वा,"
मुझे भयभीत मत करो, दूसरों को भयभीत करो, एषामेव इस्थिकामेहि मुच्छिया गठिया गिडा असो- इसी प्रकार वह स्त्री सम्बन्धी कामभोगों में भी मूच्छितबवण्या-जाव कालमासे कालं किया गयेरसु अथित, गृद्ध एवं आसक्त होकर-यावत्--जीवन के मम्तिम आमुरिएसु किब्यिसिएमु ठाणेमु उपसारो भवति । क्षणों में देह त्याग कर किसी असुर लोक में किल्विषिक देवस्थान
में उत्पन्न होते है।
1-५ प्रथम निदान में देखें। ६ सूर्य. अ. २, अ. २, सु. ५६ (अंग सुत्ताणि)