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परणानुपाग-२
श्रमणोपासक होने के लिए निशान करना
सूत्र १३६-३३७
प०.-तस्स पं तहप्पगारस्त पुरिसजायस्स तहारवे समणे प्र०-इस प्रकार की ऋद्धि युक्त उस पुभाष को लप मंयम
या माधणे वा उमओ काल केवलीपणतं धम्ममा- के मूर्त रूप श्रमण माहन उभयकाल केवलि प्रज्ञप्त धर्म कहते हैं?
इक्खेज्जा? उ०-हंता आइक्सेमा ।
म. रहते हैं। ५०-से गं ! पडिसज्जा ?
प्र०-क्या वह मुनता है ? उ०-हंता! पडिस गेज्जा।
उ०-हाँ सुनता है। १०–से पंसदहेजा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ?
प्र० - क्या वह केवलि प्राप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं
मचि रखता है? उ.-हता ! सहहज्जा, पत्तिएज्जा, रोएज्जा ।
___ उ०-हाँ वह केवलि प्रज्ञप्त धर्म पर श्रद्धा, प्रतीति एवं
रुचि रखता है। ५०-से गं सीलब्खय-गुणवय-वेरमण-पस्चक्खाण-पोसहोय- प्र-क्या वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्याख्यान, वासाई पश्विज्जेज्जा?
पौषधोपत्रास करता है ? उ०—णो तिण? सम? । से गं बसणसावए भवति । उ.--यह संभव नहीं है । वह केवल दर्शन-श्रावक होता है। अभिगय जीवाजीवे-जाव-अदिमिज्जापेमागुरागरसे
वह जीव अजीद के यथार्थ स्वरूप का ज्ञाता होता है --यावत्-उसके अस्थि एवं मज्जा में धर्म के प्रति अनुराग
होता है कि-.. "अयमाउसो ! निम्नथे पावयषे अ१. एस परम?, सेसे "हे आयुष्मान् ! यह निम्रन्थ प्रवचन ही जीवन में इष्ट है । अगष्ट ।"
यही परमार्थ है । अन्य सब निरर्थक है।" से गं एयारवेणं विहारेणं विहरमाणे बह बासा समणो- वह इस प्रकार अनेक वर्षों तक आगार धर्म की आराधना वासग-परियाय पाउणइ, पाउणित्ता कालमासे कालं किच्चा करता है और आराधना करके जीवन के अन्तिम क्षणों में किसी अण्णतरेसु देवलोगेसु देवत्साए उववत्तारो भवति । एक देवलोक में देव रूप में उत्पत्र होता है। एवं बलु समणाउसो ! तस णियाणस्स इमेयार पाबए इस प्रकार हे आयुष्मान् श्रमणो ! उस निदान का यह पाप फल विवागे- ज णो संचाएति सीलवयगुणववय-वेरमण- रूप परिणाम है कि वह शीलवत, गुणवत, विरमणव्रत, प्रत्यास्थान पच्चखाण-पोतहोववासाइं परिवज्जित्सए।
और पोषधोपवास नहीं कर सकता है।
-दसा. द. १०, सु. ३६-४१ (८) समणोवासगमवण णिदाण करणं
(८) श्रमणोपासक होने के लिए निदान करना३२७. एवं खलु समगाउलो ! मए धम्मे पण्णते-जाब-' से य ३३७ हे आयुष्मान् श्रमणो ! मैंने धर्म का प्रतिपादन किया है
परक्कममाणे दिञ्चमाणुस्सएहि काममोगेहि गिवे -पावत्-संयम साधना में पराकम करते हुए निर्गन्य दिव्य गच्छज्जा
और मानुषिक कामभोगों से विरक्त हो जाने पर यों सोचे कि"माणुस्सगा काममोगा अधुवा-जाव-'विप्पमहणिज्जा, "मानुषिक कामभोग अध्रव है-यावत- त्याज्य है। विम्वा वि खलु कामभोगा अधुवा, अणितिया, असासमा, देव सम्बन्धी कामभोग भी अध्र व है, अनित्य हैं, अशाश्वत चलाचलम-धम्मा, पुनरागमणिग्जा पच्छा पुई घणं अवस्स है, चलाचल स्वभाव वाले हैं, जन्म-मरण बढ़ाने वाले हैं। आगेविष्पजहणिज्जा।"
पीछे अवश्य त्याज्य हैं।" जइ इमस्स सुचरिब-तव-नियम-बंमधेरवासस्स कल्लाणे "यदि सम्यक प्रकार से आचरित मेरे इस तप-नियम एवं फल-वित्तिविसेसे अस्थि, अहमदि आगमेस्साए, जे इमे ब्रह्मचर्य-पालन का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो मैं भी मवंति उम्मपुत्ता महामाउया भोगपुस्ता महामाया तेसि णं भविष्य में जो ये विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाले उग्र वंशी या भोग- १ वि. स. २, अ. ५, सु. ११
२ सातवे निदान में देखें। ३ सातवें निदान में देखें।