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सूत्र ३२१-३२३
विराधक कार्पिक श्रमण
आराधक-विराषक
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३७. अलामिसेयकडिणमायमूया,
(३७) जलाभिषेक करने से जिनका शरीर कठिन हो गया
३८. आयावाहि
(३८) सूर्य की आतापना से शरीर को तपाने दाले, ३६. पंचम्गितावेहि,
(३६) पंचाग्नि की आतापना से, ४०. इंगालसोल्लिय,
(४०) तपकर कोपने के समान शरीर को बनाने वाले, ४१. कण्डसोल्लियं,
(४१) भांड में भुजे हुए के समान, ४२. कट्टसोल्लियं पिव अप्पागं करेमाला बहाई वासाई (४२) काठ के समान शरीर को बनाने वाले, बहुत वर्षों परियागं पाउणप्ति, बहुई वासाई परियाग पाउणिसा काल- तक वानप्रस्थ पर्याव का पालन करते है और पालन कर मृत्युमासे कालं किच्चा उपकोसेगं बोइसिएसु देवेसु देवताए काल आने पर देह त्यागकर वे उत्कृष्ट ज्योतिष्क देदों में देव उववत्तारो मवेति । तहि तेसिं गई-जाव-पलिओयम वास- रूप में उत्पन होते हैं । वहाँ अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति सयसहस्समम्महियं ठिई-जाव-परलोगस्स बिराहगा। होती है-पावत् -एक लाख वर्ष अधिक एक पल्योपम-प्रमाण
-उद. मु. ७४ की स्थिति होती है --यावत्-वे परलोक के बिराधक होते हैं। विराहगा कंदप्पिया समणा
विराधक कांदपिक श्रमण - ३२२. से जे इमे गाभागर-जाव-सण्णिवेसे पवहया समणा ३२२. जो ये ग्राम, आकर-यावत्-सग्निवेश में प्रवजित श्रमण मवंति, तं जहा
होते हैं, जैसे--- १. कंवप्पिया.
(१) कान्दर्षिक हंसी-मजाक करने वाले.! २. कुमकुझ्या,
(२) कोत्कुचिक-भो, आँख, मुंह. हाथ, पैर आदि से मांडों
की तरह कुत्सित चेष्टाएँ कर हँसाने वाले, ३. मोहरिया,
(३) मौखरिक - असम्बद्ध या ऊटपटांग बोलने वाले, ४. गोयरहप्पिया,
(४) मीत रतिप्रिय-गानयुक्त क्रीड़ा में विशेष अभिरुचि वाले, ५. नरवणसीला।
(५) नर्तनशील-नाचने की प्रवृत्ति वाले। ते गं एएणं बिहारेण बिहरमाणा बरई चासाई सामण्ण- जो अपने-अपने जीवनक्रम के अनुसार आचरण करते हुए परियाय पाउणति, बहूई वासाई सामण्णपरियाय पाउपिता बहुत वर्षों तक श्रमण-जीवन का पालन करते हैं, पालन कर अन्त तस्स ठाणस अणासोइय अपरिपकता कालमासे कालं समय में अपने पाप-स्थानों का आलोचन-प्रतिक्रमण नहीं करते, किमया उक्कोसेणं सोहम्मे कवपिएस देवेसु देवत्ताए उवव- गुरु के समक्ष आलोचना कर दोष-निवृत्त नहीं होते, वे मृत्युवाल सारो भवति । तहि तैसि गई-जाव-पलिओवमं वाससय- आने पर देह-त्याग कर उत्कृष्ट सौधर्म-कल्प में प्रथम देवलोक में सहस्सममाहिय लिई-जाव-परमोगस्स विरम्हगा। हास्य-क्रीड़ा-प्रधान देवों में उत्पन्न होते हैं। वहीं अपने स्थान के
-उव. सु. ७५ अनुरूप उनकी गति होती है-पावत्-एक लाख वर्ष अधिक
अनुरूप उनकी गात एक पस्योपम स्थिति होती है-यावत्-वे परलोक के विराधक
होते हैं। विराहगा परिवायगा--
विराधक परिव्राजक३२३. से जे इमे यामागर-जाव-सग्णिसेस परिवायगा भवंति, ३२३. जो ये ग्राम, आकर-यावत्-सनिवेश में अनेक प्रकार तं जहा
के परिव्राजक होते हैं, जैसे१. संत्रा,
(१) साख्य-पुरुष, २. जोगी,
(२) योगी-हठ योग के अनुष्ठाता, ३. काविला,
(३) कापिल-महर्षि कपिल को मानने वाले निरीश्वरवादी
सांख्य मतानुयायी, ४. घिउम्बा,
(४) भार्गव - भृगु ऋषि की परम्परा के अनुसा, ५.हंसा,
(५) हंस,