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सूत्र ३२८
कविषिक आधि विराधक श्रमण
आराधक-विराषक
[१५३
कंदप्पिया विराहगा समणा ।
कांदर्पिक आदि विराधक श्रमण३२८. कन्यप्पकोक्कुइयाई तह सील-सहाय-हास-विकहा: १२जो काम करा करा रहता है. दूसरों को हंसाने की विम्हावेन्तो य परं, कम्वल्पं भावनं कुणः ॥ नेष्टा करता रहता है, शील, स्वभाव, हास्य और विकथाओं के
द्वारा दूसरों को विस्मित करता रहता है, वह कांदी भावना
का आचरण करता है। मन्ताजोगं काउं मूईकम्मं च जे पउंजन्ति । जो सुख, रस और समृद्धि के लिए मन्त्र, योग और भूतिकर्म सम्यरसहडिकहेउं अभियोग भावणं कुणा ॥ का प्रयोग करता है, वह अभियोगी भावना का आपरण करता है। नाणस्स केवलीणं धम्मायरियस संघसाहूर्ण ।
जो शान, केवली-ज्ञानी धर्माचार्य, संघ तथा साधुओं की माई अबण्णवाई किम्बिसियं मावन कुणा ॥ निन्दा करता है वह मायावी पुरुष किल्बिषिकी भावना का
आचरण करता है। [टिप्पण पृष्ठ १५२ से चालू) ६. परिव्राजक,
१०. प्रत्यनीक श्रमण, ११. आत्मप्रशंसक श्रमणादि,
१२. आजीविक, १३, निन्हब, ये तीन बारावक और तेरह विराधक इस प्रकार कुल सोलह श्रेणियों में विभाजित आत्माओं की मरने पर क्या क्या गति होती है ? इसका उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण में उबवाई सूत्र से लिया गया है । वि. श. १, उ. २ में भी वह वर्णन है किन्तु इस विभाग निर्दिष्ट वर्णन में और व्याख्याप्रज्ञप्ति के वर्णन में कुछ अन्तर है उसकी जानकारी के लिए तालिका दी जाती है । उधवाई सूत्र में
व्याख्याप्राप्ति में १. संज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय
११. तियंच, २. अल्गारंभी अल्पपरिग्रही श्रमणोपासक
४. अविराधित संयमासंयमी, ३. अनारम्भी अपरिग्रही श्रमण
२. अविराधित संयमी, ४. एकान्त बाल नरकगामी ५. अकाम निर्जरा करने वाले ६. बन्दी आदि ७. प्रकृति भद्र ८. कुछ स्त्रियाँ ६. बाल तपस्वी १०. वानप्रस्थ,
७. तापस ११. कान्दर्पिक श्रमण आदि,
८, कान्दपिक श्रमण, १२. सांख्य आदि परिमाजक
६. चरक परिव्राजक, १३. प्रत्यनीक श्रमण
१०. किल्लिषिक, १४. आत्मप्रशंसकादि
१२. आभियोगिक, १५. आजीविका
१३. आजीविक १६. निन्हब
१४, दर्शन भ्रष्ट वेष धारक १. असंयत भव्य द्रव्य देव ३. विराधित संयमी ५. विराधित संयमा संयमी
६. असंजी दोनों सुवों में मिलाकर बीस इच्छा होती हैं । भगवती सूत्र में छ: कम होने से चौदह हैं और "उबवाई सूत्र" में चार कम होने से सोलह हैं । दस पृच्छा दोनों सूत्र में समान हैं। प्रज्ञापना सूत्र पद २० सूत्र १४७० में भगवती सूत्र के समान ही चौदह पृच्छा हैं ।
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