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चरणानुयोग-२
माराधक-अगारम्म अगगार
सूत्र ३१९-३१३
जस्सट्ठाए कीरइ नग्गमावे, मुंजमावे, अन्हाणए, अवंतषगए, जिस लक्ष्य के लिए नग्नभाव, मुण्डभाव, अस्नान, अदन्तकेसलोए, संभरबासे, अच्छत्सर्ग, अणोवाहणगं, भूमिसेज्जा, धावन, केशलुंचन, ब्रह्मचर्यवास, छाते तया जूते का अग्रहण, फलहसेम्जा, कट्टसेज्जा, परघरपवेसो, लगावल, परेहि, भूमि, फलक व काष्ठ पट्टिका पर शयन, प्राप्त अप्राप्त की चिता होलगायो, निदणाओ, खिसणाओ, गरहणाओ, तम्जवाओ, किये बिना भिक्षा हेतु परगृह प्रवेश, दूसरे के द्वारा की गई अवज्ञा, तालणाओ, परिभवणाओ, पध्वहणाओ, उच्चावया, गाम- अपमान, मिन्दा, खिसना, गही, तर्जना, ताड़ना, परिभव, प्रव्यथा कंटगा, यानीसं परीसहोषसग्गा अहियासिजति । अनेक अल्पाधिक इन्द्रिय-कष्ट बाईस प्रकार के परीषह एवं उप
सर्ग आदि स्वीकार किये जाते है। तमट्ठमाराहिता परिमेहि उत्सासणिस्सासहि सिमंति, उस लक्ष्य को पूर्ण कर अपने अन्तिम उच्छ्वास-नि:श्वास में बुजति, मुख्यति, परिणियाणयंति सम्बवतापमतकरति। सिद्ध होते हैं, बुद्ध होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिस होते हैं और
सब दुःखों का अन्त करते हैं। जेसि पियपं एगइयाणं णो केवलबरनाणसणे समुपज्जा, जिन कतिपम अनगारों को केवलज्ञान, केवलदर्शन उत्पन्न से बहूई वासाई छउमस्थपरियाग पाडगंति, पाउणिसा नहीं होता ये बहुत वर्षों तक छद्मस्थ-पर्याय में संयम पालन आवाहे उप्पपणे वा अप्पम्मे वा मत्तं पञ्चवति । ते यह करते हैं। फिर किसी रोग आदि के उत्पन्न होने पर ग न होने मत्ताई अणसणाए छेवेंति, जस्सट्टाए, कौर मग्गमावे-जाव- पर भी वे भोजन का परित्याग कर देते हैं। बहुत दिनों का तमटुमाराहिता परिमेहि सासणीप्ताहि अणसं, अगुत्तर, अनशन करते हैं, अनशन सम्पन्न कर जिस लक्ष्य से कष्ट पूर्ण निवाघायं, निराबरगं, कसिणं, परिपुर्ण केवलवरनाण- संयम पथ स्वीकार किया-पावत उसे आराधित करके अन्तिम वंसगं उप्पादति, सओ पन्छा सिरितहिति-जाव-सयाक्लाग- उच्छवास निःश्वास में अनन्त, अनुत्तर, निव्याघात, निराबरण, मंतं करेहिति।
कृत्स्न प्रतिपूर्ण केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त करते हैं। तत्पश्चात्
सिद्ध होते हैं-यावत् - सब दुःखों का अन्त करते हैं। एगच्चा पुण एगे भयंतारो पुवकम्मावसेसेगं कालमासे कई एक ही भव करने वाले पूर्व-संचित कर्मों में से कुछ कर्म काल किच्चा उक्कोसेणं सबटुसिडे महाविमाणे वेवसाए क्षय अवशेष रहने के कारण मृत्यु काल आने पर देह-त्याग कर उपवतारो भवति ।
उत्कृष्ट सर्वार्थ सिद्ध महाविमान में देवरूप में उत्पन्न होते हैं । तहि तेसि गई, तहि तेसि लिई, तहि तेसि उववाए पपसे। वहां अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति, स्थिति और उप
पात होता है। प०-तेसि गं मंते ! देवाणं केवइयं कालं हि पण्णता? प्र०-हे भगवन ! उन देवों की स्थिति कितने काल की
कही गई है? उ.-गोयमा ! तेत्तीसं सागरोवमाई हिणत्ता।
उ.-गौतम ! उनकी स्थिति तेतीस सागरोपम-प्रमाण
प०-अस्थि मंते ! तेसिनं देवाणं रीवा , गुई प्र.-भन्ते । उन देवों की ऋद्धि, ध्रुति, यश, बल, बीर्य
वा, असे इवा, असे वा, वीरिए इवा, पुरि- एवं पुरुषाकार पराक्रम होता है ?
सक्कारपरक्कमे रा? उ.-हंता अस्थि ।
उ-हो, होता है। ५० ते ६ भंते ! वा परलोगस्स माराहगा,
प्र०-भन्ते ! वे देव परलोक के आराधक होते हैं ? उ.-हंता अस्थि ।
-उव. सु. १२६-१२६ उ.-हो, होते हैं। आराहगा अप्पारंमा समणोवासगा
आराधक अल्पारम्भी श्रमणोपासक. ३१३. से जे इमे गामागर-जाव-सष्णिवेसेसु मणुया भवति, तं जहा- ३१३. ग्राम, आकर-पावत्-सन्निवेश आदि में ये जो मनुष्य
अप्पारंभा, अप्पपरिमाहा, धम्मिया, घम्मानुया, धम्मिट्ठा, रहते हैं, यथा-अल्पारम्भी, अल्परिग्रही, धार्मिक, धर्मानुयायी, धम्मक्खाई, धम्मप्पलोई, धम्मपलग्जणा, धम्मसमुदायारा, धर्मिष्ठ, धर्मवादी, धर्मप्रलोको, धर्मानुरागी, धर्मरूप सदाचार धम्नेगं । प्रिति करेपाणा, सुपीत्रा, सुखरा, सुपति- वाले, धर्म से ही जीवन निर्वाह करने वाले, सुशील, सुवती, सदा याणंदा ।
प्रसन्नचित्त रहने वाले होते हैं।