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समणे निग्गंधे फाय. एसपिज्जेणं असण-पाण-लाइम-साइ ओहमेस जेणं, पडि हारएण य पीड़-फलग सेज्जा संथारएणं पहिलाभमाणा विहरति विहरिलाभतं पचति न पचति ते बहू मताएं अणसणाए छेदेति, छंदिता आलोइयपडिक्कंता समाहिता कलमासे कालं किच्चा उक्कोसेणं अन् कप्पे देवत्ताए उबवत्तारो भवति ।
सहि देखि गई जान -बावीस समयमा जाय-परमोगरत भरागा --उव. सु. १२३-१२४
आराधक सपिंचेन्द्रिय तिर्यक्योकि
आराहया सपिंजिनियतिरिक्तशोणिया३१४. से जे इमे सणिपंचिदियतिरिक्खजोणिया पज्जतया भवंति संजहा- जलबरा, चलयरा, खयरा
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लेसिया सुभेवं परिणामेनं पतिसानेहि मेस्साहि विमुमापहि तयावरणमा कम्माणं खओवसणं, ईहाह-मग्गण - गवेसणं करेभाणाणं मणीपुथ्व आइसरणे राम्रण्यद
तए णं समुप्पण्ण-जाइसरणा समाणा सयमेव पंचाश्वपाई पति वि
बहू सोलग्यगुणवेरमणपच्चक्खाण पोहोचवासहि अप्पाणं मामागा
बहुबालाई आउ पाति, पालिता आलोयता समाहिता कलमासे कालं fear उनकोसेणं सहस्सारे रूप्ये देवताए उनारो भवंति ।
विराहया एगंत बाला-३१५.०
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तहि सेसि गई जाव अट्ठारस सागरोषमादं ठिई-जाद-परलोगस्सा राहदा .. ११०-११२
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हंतापचयति
भते असंखए, अबिर अर्थाविपचच्च पाकम्मे, सकिरिए, अबुडे, एगंतबंडे, एगंत बाले, एतत्ते ओसणस पाणधाई कालमासे कालं पिचार उपवज्जति ?
तथा श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक एवं एषणीय अशन, पान, खादिम और स्वादिम आहार का तथा वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोंछन, औषध, भेषज तथा पडिहारी ( वापिस लेने योग्य) पीठ फलक या संस्तारण का दान करते हुए विचरते हैं. विचरकर अन्त में आहार का प्रत्याख्यान करते हैं। आहार का प्रत्यास्थान करके बहुत से भक्तों (भोजन वेलाओं का ) अनशन से छेदन करते हैं, छेदन करके आलोचना-प्रतिक्रमण करके समाधि को प्राप्त होकर काल मास में काल करके उत्कृष्ट अच्युत कल्प में देव रूप से उत्पन्न होते हैं ।
नहीं उनके स्थान के अनुरूप यतिधातुमास माग रोपम की स्थिति कही गई है - यावत् - वे परलोक के आराधक होते हैं।
३१३-११५
आराधक सनिपवेन्द्रिय तिर्यचयोनिक
३१४. जो ये सन्निवेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यचयोनिक होते हैं,
जैसे- (१) जलचर, (२) स्थलचर, (३) खेचर,
उनमें से कइयों के उत्तम अध्यवसाय, शुभ परिणाम तथा विशुद्ध होती हुई श्याओं के कारण ज्ञानावरणीय एवं नीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, भार्गणा, गवेषणा करते हुए अपनी संशित्य अवस्था से पूर्ववत भयों की स्मृति रूप जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो जाता है ।
- उव. सु. ६७
जाति-स्मरण ज्ञान उत्पन्न होने पर वे स्वयं पाँच अणुव्रत स्वीकार करते है, स्वीकार करके,
अनेकविध शीत गुणवत, विरति प्रत्यास्थान दोषोप वास आदि द्वारा आत्मा को भावित करते हुए बहुत वर्षों तक अपने आयुष्य कान करते हैं फिर से अपने पापस्थानों की आलोचना कर प्रतिक्रमण कर समाधि-व्यवस्था प्राप्त कर मृत्यु कालमाने पर देहवान कर स्कूष्ट सहखार-कल्प-देवलोक में देव रूप में उत्पन्न होते हैं ।
अपने स्थान के अनुरूप उनकी गति होती है— पावत् उनकी वहां बहार सामरोपम की स्थिति कही गई है-पात् वे परलोक के आराधक होते हैं ।
विराधक एकान्त बाल
३१२. प्र० भगवन्! जो जीव संयम रहित है, अविरत है, जिसने सम्यक्त्व पूर्वक पापकमों को हलका नहीं किया है, नहीं मिटाया है, जो सक्रिय है-संवररहित है-पापपूर्ण प्रवृत्तियों द्वारा अपने को तथा औरों को दण्डित करता है, एकान्त बाल है तथा मियान की गाड़ निद्रा में दोबा हुआ है, अब प्राणियों की हिंसा में लगा रहता है तो क्या वह मृत्यु आने पर मरकर मेर मिकों में उत्पन्न होता है ?
उ०- हाँ, गौतम वह नरक में उत्पन्न होता है ।