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परमानयोग-२
मुखमन को
और रुपमा जी सद्गति
सूत्र १४५-१४६
कुसमणस्स दुग्गई सुसमणस्स सुग्गई.
कुथमण की दुर्गति और सूक्ष्मण की सद्गति१४५. एपारिसे पंच कुसीलसंवुडे, रूपंधरे मणिपबराण हेट्रिमे । १४५. जो पुर्व वर्णित आचरण करने वाला, पाँच प्रकार के अयंसिलोए विसमेव गरहिए, न से इन्हें नेव परस्यलोए ॥ कुशीनों मे युक्त केवल मुनि के वेश को धारण करने वाला और
--उत्त, अ. १७, गा. २० श्रेष्ठ मुनियों की अपेक्षा होन संयम वाला होता है, वह इम लोक
में विष की तरह निदित होता है तथा उसके यह लोक और
परलोक दोनों ही नहीं सुधरते । सहसायगरस समयस्स, सायाउलगस्स निगामसाहस्स।
जो श्रमण इन्द्रिय सुख का इच्छुक, माता के लिए आकुल, उच्छोलणा पहोइस्स, दुल्लहा सुग्गइ तारिसगस्स ।। अधिक सोने याला और हाथ पर आदि को बार-बार धोने वाला
-दम . अ. ४, गा. २६ होता है उसके लिए सुगति दुर्लभ है। चौराजिणं भगिणिणं जडी संघाडो मुंठिण।
वस्त्र, चर्म, नम्नता, जटा धारण, गुदड़ी धारण, सिरमुंडन एयाणि विन तायंति वुस्सीलं परियागयं ॥
आदि दुःशील साधू को दुर्गति से रक्षा नहीं कर सकते । पिहोलए ध्व वुस्सीलो नरगाओ न मुच्चई।
शिक्षाजीवी साधु यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त भिक्खाए वा गिहत्ये बा सुट्यए कमई दिवं॥
नही हो सकता। भिक्षु हो या गृहस्थ यदि नह सुबती है तो - उत्त. अ. ५, गा. २१-२२ दिव्य गति को प्राप्त करता है । जे वज्जए एए सया उ बोसे, से सुब्बए होड मुणोणमउसे। जो इन पूर्वोका दोषों का मदा वजन करता है वह मनियों अपंसि लोए अमयं व पूइए, आराहए लोगमिणं तहापरं ॥ में मुरती होता है। वह इस लोक में अमृत की तरह पूजित
-उत्त. अ. १७, गा. २१ होता है तथा इस लोक और परलोक दोनों लोक की आराधना
करता है। मज्ज सेवणस्स विवज्जणस्सय परिणामो-.
मद्य सेवन का और विवर्जन का परिणाम१४६ सुरं घर मेरग वा वि, अन्न वा मज्जग रसं । १४६. अपने संयम का संरक्षण करता हुआ भिक्षु सुरा, मेरक या ससक्खं न पिवे भिक्खू, जसं सारक्खमप्पणो।
अन्य किसी प्रकार का मादक रस आरम साक्षी से न पीए। पिया एगइओ तेणे, न मे कोइ वियाणइ ।
जो मुनि मुझे कोई नहीं जानता (यों मोचता हुआ) एकान्त तस्म पस्सह दोसाई, नियदि च सुह मे ॥
में स्तेनवृनि से मादक रस पीता है. उसके दोषों को देखो और
मायाचरण को मुझसे सुनो। बहई सौंडिया तस्स, मायामोसं च मिक्खणो।
उस भिक्षु के उन्मलता, माया मृषा, अवय, अतृति और अयसो य अनिवाणं, सययं च असाहुया ।। मतत अमाधुता ये दोष बढ़ते हैं। निविगो जहा तेणो, अत्तकम्मेहि दुम्मई ।
नह दुर्मलि अपने दुष्कर्मों से चोर की भाँति सदा उद्विग्न तारिसो मरणते वि, नाराहेइ संवरं ।।
रहता है। मद्यप मुनि मरणान्त-काल में भी मंदर की आराधना
नहीं कर पाता। आयरिए नाऽऽराहेइ, समणे यावि तारिसो।
___वह न तो आचार्य की आराधना कर पाता है और न मिहत्व वि गरहंति, जेण जाति तारिस ।
श्रमणों की भी । गृहस्थ भी उसे मद्यप मानते हैं, इसलिए उसकी
गहीं करते हैं। एवं तु अगुणप्पेही, गुणाणं च विवजओ ।
सकार अगुणो की प्रेक्षा (आसेवना) करने वाला और तारिसो मरणते वि, नाउराहेइ संवरं ।।
गुणों को वर्जने बाला मुनि मरणान्त-काल में भी संबर की
आराधना नहीं कर पाता। तवं कुम्वइ मेहावी, पणोयं वज्जए रस !
जो बुद्धिमान माधः प्रणीत रय युक्त भोजनों को छोड़कर मजपमायविरओ, तबस्सी उपकसो।।
तपश्चर्या करता है, जो मद्य प्रमाद से विरत होता है। बह तपस्वी विकास मार्ग में आगे बढ़ता है।