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परणानुयोग-२]
गीला शरीर हो तब तक आहार करने का निषेध
पत्र १९२-१६३
गाहावहकुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविदुस्स निमिजतय आहार के लिए गए हुए हो और उस समय रुक-रुक कर वर्षा निगिजाय वृष्ट्रिकाए निवइज्जइ कप्पद से अहे आर.मंसि आने जगे तो उन्हें आराम-गृह, उपाश्रय, विकट गृह या वृक्ष के वा, अहे अबस्ससि वा, अहे बियाडगिहसि वा, अहे रुख- नीचे आकर ठहरना काल्पता है । मूलसि वा उवागछित्तए। १. तरप नो कम्पइ एगस्स निग्गंधस्स, एगाए य निम्नथीए (१) किन्नु वहाँ अकेले निन्थ को अकेली निर्ग्रन्थी के साथ एगयओ चिट्टिसए।
ठहरना नहीं कल्पता है। २. सत्य नो कप्पह एगस्स निग्गंथस्त दुहं निग्गंधीणं एग- (२) मले निन्थ को दो निग्रंथियों के साथ ठहरना नहीं यओ चिट्ठिसए।
कल्पता है। ३. तत्य नो कप्पद बुहं निग्गंधाणं एगाए प निग्गंथीए (३) दो निग्रन्थों को अकेली निर्ग्रन्थी के साथ ठहरना नहीं एगपओ चिट्टित्तए।
कल्पता है। ४. तत्थ नो कप्पह दुण्हं निगंथाणं, दुहं निमगधोणं य (४) दो निर्गन्धों को दो निग्रंथियों के साथ ठहरना नहीं एण्यओ विद्वित्तए।
कल्पता है। अत्यि व इत्थ केइ पंचमे खुदाए खुड्डीया वा अन्नेसि वा यदि यहां पर पांचवां व्यक्ति बालक या बालिका कोई भी संलोए सपडिनुवारे, एवं ण कम्पद एयो चिद्वित्तए। हो अथवा वह स्थान आने-जाने वालों को स्पष्ट दिखाई देता हो
तो वहाँ पर एक गाय ठहरना कल्पता है । वासावासं परजोसवियस्स निग्गंथम्स गाहावइकुल पिडवाय- वर्षावास रहा हुआ निग्रंन्य गृहस्यों के घरों में आहार के पडिपाए अपविट्ठस्स निगिजिमय निगिज्य बट्टिकाए लिए गया हुआ हो और उस समय रुक-रुक कर वर्षा आने लगे निवाजा, कल्पह से अहे रामसि वा, अहे उबस्सयंसि तो उसे आरामगृह, उपाश्रम, विकटगृह या वृक्ष के नीचे आकर वा, अहे वियगिहसि वा, अहे लक्खमूलसि वा उश- ठहरना कल्पता है । गकिछत्तए। तस्य नो कप्पइ एगस्स निग्गंधस्स, एगाए य आगारीए किन्तु वहाँ अकेले निर्ग्रन्थ को अकेली स्त्री के साथ ठहरना एगयो चिद्वित्तए।
नहीं कल्पता है। एवं पत्तारि भंगा भाणियवा ।
इस प्रकार (उपरोक्त) चार भंग कह लेने चाहिये। अस्थि या इत्व के पंचमए थेरे वा, थेरियाइवा, अन्नेसि यदि वहां पर पांचवा स्थायर पुरुष या स्थविर स्त्री हो वा संलोए सपरिवारे, एष णं कप्पद एगयो चिट्ठिसए। सवा यह स्थान आने-जाने वालों को स्पष्ट दिखाई देता हो तो
__ वहाँ पर एक साथ ठहरना कल्पता है । एवं चेव निग्गंधीए अगारस्स य चत्तारि भंगा भाणियव्वा । इसी प्रकार निर्गन्धी और गृहस्थ पुरुष के चार भंग कहने
-दसा. द. 4, सु. ४५-४७ चाहिए। उपउल्लकाएण आहार-णिसेहो
गीला शरीर हो तब तक आहार करने का निषेध१९३. वासाबास पज्जोसवियाणं नो कप्पह निम्नभाण बा, १६३. वर्षावास रहे हुए निग्रंन्य-निग्रन्थियों को वर्षा के जल से
निग्गयोग वा उदउल्लेग बा, ससिणिण या कारणं असणं स्वयं का शरीर गीला हो या वर्षा का जल स्वयं के शरीर से बा-जाव-साइमं वा आहारित्तए।
टपकता हो तो अशन-पावत्-स्वाद्य आहार करना नहीं
कल्पता है। प.-से किमाइ मते?
प्र०—हे भगवन् ! ऐसा क्यों कहा गया है? -सत्त सिहाययणा पण्णता, तं जहा
उ.-शरीर पर पानी दिकने के सात स्थान कहे गये हैं।
यथा--- १. पाणी, २. पाणिलेहा,
(१) हाथ और, (२) हाथ की रेखाएँ, ४. नहसिहा,
(३) नख और, (४) नव के अग्रभाग, ५. भमुहा, ६, अहरोट्टा,
(५) भौहा (६) दाढ़ी और ७. उत्तरोदा।
(७) मुंछ ।