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चरणानुयोग – २
इत्यंडिया जीवासियांति, यंति, सम्यक्ाणमंत करेंति ।
अपा
धम्मं सहामि पलिआम रोएम, फासेमि, पालेमि अणुपामि ।
सहंतो पत्तिअंतो, शेअंती फासतो, पातो
निन्-धर्मातचार सूत्र
संति, मुज्वंति, परिनिष्या
तस्स धम्मस्स अमुट्ठिओमि आराहणाए, विरवीमि विराह
णाए ।
(१) असंजनं परिमाणामि, उपसंजामि
(२) अपरिणाम संभवामि ।
(३) अकप्पं परिणामि, कर्ण उवसंपज्जामि ।
(४) अन्नाणं परिमाणामि, नाणं उवसंपज्जामि ।
(५) अतिरियं परिपामि किरियं उपसंपजामि ।
(६) मिच्छतं परिमाणामि, सम्मतं उपसंपन्नामि ।
(७) अबोहि परिजानामि बोह
(८) अमर्ग परिमाणामि, मग्गं उबसंपज्जामि ।
जं संभरामि, जं च न संभरामि, पडिक्यमाथि
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न पडकमाि
तस्स सास्स देवसियस्स अइभरस्स पक्किमामि । समणोऽहं संजय विरय परिचय पावकम्मो अनियाणो, दिद्विसंपन्नो माया- मोस- विवज्जिओ ।
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बाजे बी समुद्देसु. पर
भूगी। जावंत के वि साहू, महरण-गुच्छ परिग्गह-धरा ॥
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इस निर्णय प्रवचन में स्थित रहने वाले अर्थात् तदनुसार आचरण करने वाले भव्य सिद्ध होते है, सर्वज्ञ होते हैं. पूर्ण आत्म-शान्ति को प्राप्त करते हैं तथा समस्त दुःखों का (सदा काल के लिए) अन्त करते हैं ।
मैं इस निर्मन्थ-प्रवचन स्वरूप धर्म की श्रद्धा करता हूँ, भक्ति स्वीकार करता हूँ, रूचि करता हूँ, स्पर्शना करता हूँ, पालन करता हूँ, विशेष रूप से निरन्तर पालन करता हूँ ।
हुआ,
मैं प्रस्तुत जिन धर्म की श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता रुचि करता हुआ, आचरण करता हुआ, पालना करता हुआ, विशेष रूपेण निरन्तर पर हुआ
उस धर्म की आराधना करने में पूर्ण रूप से तत्पर हूँ और धर्म की विराधना से पूर्णतया निवृत्त होता है
( १ ) असंयम को जानकर त्यागता हूँ, संयम को स्वीकार करता हूँ।
(२) अब्रह्मचर्य को दान त्यामता है, ब्रह्मचर्य की स्वीकार करता हूँ ।
(३) अकल्म को जानकर त्यागता हूँ, कल्प्य को स्वीकार करता हूँ ।
( ४ ) अज्ञान को जानकर त्यागता हूँ, ज्ञान को स्वीकार करता हूँ ।
( ५ ) अकृत्य को जानकर त्यागता हूँ, कृत्य को स्वीकार करता हूँ ।
(६) मिथ्यात्व को जानकर त्यागता हूँ, सम्यक्त्व को स्वीकार करता हूँ ।
(७) मिथ्यात्व के कार्य को जानकर त्यागता हूँ, सम्यक्त्व के कार्यको स्वीकार करता है।
(८) हिंसा आदि अमार्ग को जानकर त्यागता हूँ, अहिंसा आदि भार्ग को स्वीकार करता हूँ ।
जो दोष स्मृति में है और जो स्मृति में नहीं है,
जिनका प्रतिक्रमण कर चुका हूं और जिनका अतिक्रमण नहीं कर पाया हूँ ।
उन सब दिवस सम्बन्धी अतिचारों का प्रतिक्रमण करता हूँ, मैं श्रमण है, संयमी है, विरत हूँ पाप कर्मों को रोकने वाला हूँ, एवं पाप कर्मों का त्याग करनेवाला हूँ, निदान - शल्य से रहित हूँ, सम्यग्दर्शन से युक्त हूँ माया सहित गाद का परिहार करने वाला हूँ ।
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अठाई द्वीप और दो समुद्र के परिमाण वाले मनुष्य क्षेत्र में अर्थात वह कर्मभूमियों में जो भी रजोहरण, गुच्छक एवं पात्र के धारण करने वाले हैं