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१.६
चरणानुयोग-२
सामान्य रूप से अतिचारों का विशुद्धिकरण
सूत्र २६६-२७०
३, जयवि य गं धाउद्दसमुद्दिपुग्णमासिणीसु पडिपुणं (३) जब वह अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या तथा पूर्णिमा के पोसहं सम्म अणुपालेह, तस्यवि य से एगे आसासे पण्णते, दिन परिपूर्ण-दिन रात भर पौषध का सम्यक् अनुपालन करता
है, तब तीसरा भाश्वास होता है, ४. जत्थवि य अपच्छिममारणंतियसलेहणा-सूसणा-भूसिते (४) जब वह अन्तिम मारणांतिक संलेखना की आराधना मत्तपाणपडियाक्खिते पाओवगते कालमणवक्खमाणे बिह- से युक्त होकर भक्त-पान का त्याग कर पादोपगमन अनशन को रति, तत्यवि य से एगे आसासे पण्णते।
स्वीकार कर मृत्यु के लिए अनुत्सुक होकर विहरण करता है, -ठाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३१४ तब चौथा आश्वास होता है। ओघाइयार विसोहोकरणं
सामान्य रूप से अतिचारों का विशुद्धिकरण२६७, इच्छामि ठामि कास्सग, जो मे देवसिओ अारो को २६७. मैं कायोत्सर्ग करना चाहता हूँ, जो मैंने दिबस सम्बन्धी
काइओ, वाइमो, मागसिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो, अकप्पो, अतिचार किये हों वे कायिक, वाचिक, मानसिक, सूत्र से विरुद्ध, अकरणिन्नो, दुझाओ, दुविचितिओ अणायारी अणिन्छि- मार्ग से विरुख, अकल्पनीय, नहीं करने योग्य, दुर्ध्यान रूप, यच्यो असावगपावागो । नागे तह बसणे परिसाचरिते सुए दृश्चिन्तन रूप, नहीं आचरने योग्य, नहीं चाहने योग्य, श्रावक सामाइए तिम्हं गुत्तीणं, चउन्हं कसायाणं, पंचहं अणुन- के लिए अनुचित, ज्ञान, दर्शन व चारित्राचारित्र में, श्रुत शान में, याण, सिहं गुणध्वयार्ण, चउहं सिक्खाबयाणं, बारस सामायिक में तथा तीन गुप्ति की, चार कषायों से निवृत्ति की, विहस्स सावगधम्मस्स जखडियं जं बिराहियं तस्स मिच्छामि पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाप्रत एवं बारह प्रकार
-आव. अ.४ के धावक धर्म की जो खण्डना की हो, जो विराधना की हो तो
उसका दुष्कृत मेरे लिए मिथ्या हो । अप्पाउबंधकारणाई
अल्पायु बंध के कारण२६८. तिहि ठाणेहिं जीवा अप्पाजयत्साए कम्म पगति तं जहा- २६८, तीन प्रकार से जीव अल्प आयुष्य कर्म बांधते हैं, यथा -
१. पाणे अतियानित्ता भवति, २. मुस यतिता भवति, (१) प्राणियों की हिंसा करने से, (२) असत्य बोलने से, ३. तहाकव समर्ण वा माहणं या अफासुएणं अणेसणिज्जेणं (३) तथारूप घमण माहन को अप्रासुक, बनेषणीय अशन, असण-पाग-खाइम-साइमेणं पडिलामेता भवति, पान, खाध, स्वाद्य, आहार का दान करने से। इच्चतेति तिहिं ठाणेहि जीवा अप्पाजयत्ताए कम्म पयरेंति । इन तीन प्रकारों से जीव मल्प आयुष्य कर्म का बन्ध
- ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १३३ (१) करते हैं। बोहाउबंध कारणाई
दीर्घायु बंध के कारण२६६. तिहि ठाणेहि जीवा दीहाउयत्ताए कम्म पगति, तं जहा- २६६. तीन प्रकार से जीव दीर्घायुष्य कर्म बांधते हैं, यया१. गो पाणे अतिवातित्ता भवति,
(१) प्राणियों की हिसा न करने से, २. णो मुसं पतिता भवति,
(२) असत्य न बोलने से, ३. तहारूव-समणं वा माहणं वा फास्यएमणिग्जेणं असण- (३) तथारूप श्रमण माहन को प्रामुक एषणीय अशन, पान, पाण-खाइम-साइमेणं पडिलाभेत्ता भवति,
खाद्य, स्वाध आहार का प्रतिलाभ करने से, इच्चतहि तिहि वाहिं जीवा वोहाउयताए कम्म पगरेति । इन तीन प्रकारों से जीव दीर्घ आयुष्य कर्म का बन्ध
--ठाणं. अ. ३, उ. १, सु. १३३ (२) करते हैं। असुह दोहाउबंधकारणाई
अशुभ दीर्घायु बंध के कारण२७०. तिहिं गणेहि जोवर असुभदोहाउयसाए कम पगरेंति, २७०. तीन प्रकार से जीव अशुभ दीर्घायुष्य फर्म बांधते हैं, तं जहा
यथा१. पाणे अतियातिता भवति, २. मुसं बतित्ता भवति, (१) प्राणों का घात करने से, (२) मृषावाद बोलने से, ३. तहारूवं समणं वा माहर्ग वा हीलिता, णिविता, (३) तयारूप श्रमण माहन बी अवहेलना, निन्दा, अवज्ञा,