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सूत्र २६४-२६६
प्रत्याश्यान मंग का प्रायश्चित्त सूत्र
गृहस्थ धर्म
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परचक्खाण-भंजण-पायच्छित्त-सुत्तं -
प्रत्याख्यान भंग का प्रायश्चित्त सूत्र२६४, जे भिक्खू अभिक्सगं अभिवखणे पचमलाणं भंजद भजत २६४. जो भिक्षु बार-बार प्रत्याख्यान तोड़ता है, तुड़वाता है या वा साइजइ।
तोड़ने वाले का अनुमोदन करता है। त सेवमाणे आवजई चाउम्मासिन परिहारदाण उपघाइयं उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. उ. १२, सु. २ जाता है।
गृहस्थ-धर्म
गृहस्थ धर्म-१
समणोवासगप्पगारा
श्रमणोपासकों के प्रकार--- २६५. पत्तारि समणोवासमा पण्णता, तं जहा -
२६५. श्रमणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं । यथा१. अम्मापितसमागे, २. भाइसमाणे.
1) माता-पिता के समान, (२) भाई के समान, ३. मिससमाणे, ४. सत्तिसमाणे ।
(३) मित्र के समान, (४) सपत्नी (सोक) के समान । पत्तारि समणोबासगा पग्णता, तं जहा
पुनः श्रमणोपासक चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे१. अद्दागसमाणे, २. पडागसमाणे,
(१) दर्पण के समान, (२) ध्वजा के समान, ३. खाणुसभाणे, ४. खरकंटमसमाणे।
(३) ढूंठ के समान, (४) तीक्ष्ण कांटे के समान । —ाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३२२ समणोवासगस्स चत्तारि आसासा
श्रमणोपासक के चार विश्रान्ति स्थान-- २६६. भारणं वहमाणस चत्तारि आसासा पण्णसा, तं जहा- २६६. भारवाही के लिए चार आश्वास (विधाम) स्थान
होते है१. अस्प अंसाओ असं साहरइ, तस्यविय से एगे मासासे (१) पहला आश्वास तब होता है जब वह भार को एक पष्णते,
कंधे से दूसरे कंधे पर रख लेता है, २. जत्य वि में गं उपचारं वा पासवणं वा परिवेति, (३) दुसरा आश्वास तब होता है जब वह भार को रखकर तत्थविय से एगे आसासे पण्णत्ते,
लघुशंका या बड़ी शंका करता है, ३. जत्थवि य ण णागकुमारावासंसि था, मुग्णकुमारा- (३) तीसरा माश्यास तब होता है जब वह नागकुमार, वासंसि वा वास उति, तरपति य से एगे आसासे पण्णत्ते, सुपर्णकुमार आदि के आवासों में (रात्रिकालीन) निवास करता है, ४. जत्थवि य गं आवकहाए चिति, सत्यवि य से एगे (४) बौथा आश्वास तब होता है जब यह कार्य को सम्पन्न आसासे पण्णते।
कर भारमुक्त हो जाता है। एवामेव समणोवासगस्स चत्तारि आसासा पण्णसा. इसी प्रकार श्रमणोपामक (श्रावक) के लिए भी पार तं जहा
आश्वास होते हैं१. जयदि य णं सोलवयगुणव्यय-वेरमगं-पन्चक्वाण- (१) जब वह शीलवत, गुणवत, विरमण, प्रत्याख्यान और पोसहोववासाई पजियजति. तत्थवि य से एगे आसासे पौषधोपवास को स्वीकार करता है, तब पहला आश्वास होता है। पण्णसे, २. जयवि घणं सामाइयं देसावगासियं सम्ममणुपालेइ, (२) जब बह सामायिक तथा देशावकाशिक यत का सम्यक तस्थति य से एगे आसासे पण्णते,
अनुपालन करता है तब दूसरा आश्वास होता है,