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पत्र २८१-२८४
पन्ध्र का दान
हस्थ धर्म
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४. चुप्पउलियोसहिमवलणया,
(४) अर्धपक्ष्य को पूर्णपक्व समझकर खाना। ५. तुच्छोसहिमक्खगया । -आव. अ. ६, सु. ७८-७९ (१) (५) तुच्छ वस्तुओं का आहार करना। पण्णरस कम्मावाणाई
पन्द्रह कर्मादान२८२. कम्मओ पं समणोबासएणं पण्णरस कम्मााणाई आणि- २८२. कर्म की अपेक्षा से श्रमणोपासक को पन्द्रह-कर्मादान जानना यवाई न समायरियव्याई। तं जहा
चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए । वे इस प्रकार है१. इंगालकम्मे,
(१) अग्नि आरम्भजन्य कर्म, २. वणकम्मे,
(२) बनस्पति आरम्भ जन्य कर्म, ३. साडीकम्मे,
(३) बाहृन निर्माण फर्म, ४. भाडीकम्मे,
(४) वाहन द्वारा भाड़ा कमाने का कर्म, ५. फोडीकामे,
(५) पृथ्वीकाय के आरम्भ जन्य कर्म, ६. बंतवाणिज्जे,
(६) त्रस जीवों के अवयवों का व्यापार, ७. लक्खवाणिज्जे,
(७) लाख आदि पदार्थों का व्यापार, ८. रसवाणिग्जे,
(८) रस वाले पदार्थों का व्यापार, ६. विसवाणिजे,
(8) विषले पदार्थ ओर शस्त्रों का व्यापार, १०. केसवाणिज्जे,
(१०) पशु पक्षी आदि के केशों का व्यापार, ११. पंतपोलणकम्मे,
(११) तिल, ईख आदि पीलने के पन्नों का कर्म, १२. निस्लछणकम्मे,
(१२) बिंधना, खस्सी करना आदि कर्म, १३. ववग्गिवावणया,
(१३) जंगल आदि में भाग लगाना, १४. सर-वह-तलापपरिसोसणया,
(१४) तालाब, नदी, द्रह आदि को सुखाना, १५. असईजणपोसणया। -आव. अ. ६, सु. ७६ (२) (१५) हिंसक जानवरों का और दुश्चरित्र स्त्रियों का पोषण
करना । अणस्थदंड विरमणस्स सरूवं अश्यारा य
अनर्थदण्ड-विरमण-व्रत का स्वरूप और अतिचार२६३. अणत्या मउम्विहे पन्नतेतं जहा
२८३. अनर्थदण्ड चार प्रकार का कहा गया है। जैसे१. अवज्माणाचरिए,
(१) आर्त, रौद्र ध्यान करना, २. पमायाचरिए,
(२) प्रमाद से अविवेक पूर्ण प्रवृत्ति करना, ३. हिसापयाणे,
(३) हिंसा करने के शस्त्र देना, ४. पायकम्मोवएसे ।
(४) पाप कर्म करने की प्रेरणा करना । अणदुवंशवरमणस्स समणोवासएणं इमे पंच अइयारा जाणि- श्रमणोपासक को अनर्थ-दण्ड विरमण व्रत के पांच प्रमुख यव्या, न समायरियम्वा, तं जहा
अतिचार जानना चाहिए, उनका आचरण नहीं करना चाहिए ।
वे इस प्रकार है१. कंदप्पे,
(१) विकार युक्त कथा करना, २. कुक्कुइए,
(२) शरीर से हास्यकारी कुचेष्टाएं करना, ३. मोहरिए,
(२) अति वाचालता करना, ४. संयुत्ताहिगरणे,
(४) हिसाकारी उपकरणों को अविधि से रखना, ५. उवमोग-परिभोगाइरित्ते . अ.६, सु.८०-८१ (५) खाद्य सामग्री आदि का अधिक संग्रह करना । सामाइय-सत्वं अध्यारा य
सामायिक व्रत का स्वरूप और अतिवार२५४. सामाइयं नाम सावज जोगपरिवज्जगं निरवाजजोगपति- २६४. सावधयोगों का परित्याग करना और निरवद्ययोगों का सेवणं च।
आचरण करना इसको सामायिक कहते हैं ।
१
उवा. म.१, मु.५१ ।
२
उवो. अ. १, सु. ५२ 1