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१८)
चरणानुयोग-२
सर्व प्रत्यास्थान पारण सूत्र
सूत्र २४८
सयपच्चक्वाण-पारण-सुत्तं
सर्व प्रत्याख्यान पारण सूत्र२४८. जग्गए सूरे 'नमुक्कार-सहिय' पञ्चरखाणं' कयं । सं २४८. सूर्योदय होने पर जो 'नमस्कार-सहित' प्रत्याख्यान किया
पच्चक्खाणं सम्म काएण फासियं, पालियं, तीरियं, किट्टियं था वह प्रत्याख्यान मन, वचन, काया के द्वारा सम्यक् रूप से सोहिय, आराहियं । अंघन आराहिय, तस्स मिछा मि स्पृष्ट, पालित, तीरित, कोतित, शोधित एवं आराधित किया हो
•-सुत्तागमे आव. अ.६ और सम्यक् रूप से जो आराधित न किया हो उसका दुष्कृत
मेरे लिए मिथ्या हो ।
-- (टिप्पण पृष्ठ ६७ से चालू) (१२) लेपालेप यागार-आयंबिल = (आचाम्ल) में सरस आहार लेने का प्रत्याख्यान होते हुए भी दाता यदि शाक तथा घृत
आदि विकृति के लेप वाले चम्मच को पोंछकर दे तो उसे ग्रहण करना यह लेपालेप आहार है। (१३) उत्क्षिप्त विवेक आगार- आयंबिल योग्य निरस आहार पर गुड़ आदि (लेप रहित) पहे हए पदार्थ को उठाकर दाता उस निरस आहार को दे तो उसे ग्रहण करना यह उरिक्षप्त विवेक आगार है। (१४) गृहस्थ संसष्ट आगार-दाता के हाथ अंगुलियां आदि घृत, तेल, गुज आदि से लिप्त हो तो उसके हाथ से आयंबिल योग्य निरस आहार ग्रहण करना, यह गृहस्थ संसष्ट आगार है। (१५) प्रतीत्य प्रक्षित आगार-गेहूं आदि के गीले आटे पर धृत, तेल आदि चुपड़ दिया जाता है उससे बनाये गये रोटी पापढ़ आदि रूक्ष खाद्य पदार्थ ग्रहण करना, यह प्रतीत्य प्रक्षित आगार है। उक्त १५ आगारों में ६ आगार केवल साधु-साध्वियों के लिए ही निमत हैं। (१) सागारिक आगार, (२) पारिष्ठापनिका आगार,
(३) लेपालेष बागार, (४) उक्षिप्त विवेक आगार, (५) गृहस्थ संसृष्ट आगार,
(६) प्रतीत्यक्षित आगार, शेष : आगार साधु-साध्वी धावक-श्राविका आदि सबके लिए उपयुक्त हैं(१) अनाभोग आगार, (२। सहसाकार आगार,
(1) दिशामोह आगार, (४) साधु वचन आगार,
(५) आकुंचन प्रसारण आगार, (६) गुरु अभ्युत्थान आगार, (७) महत्तरागार, (८) प्रच्छन्नकाल आगार,
(E) सर्व समाधि प्रत्ययागार । दस प्रत्याख्यानों में से पांच प्रत्याख्यानों में पारिष्ठापनिका आगार है-यथा - (१) एकासन, (२) एक स्थान, (३) आयंबिल, (४) उपवास, (५) निर्विकृतिक । शेष ५ प्रत्याख्यानों में पारिष्ठापनिका आगार नहीं है। यथा(१) नमस्दार सहित (नौकारसी)
(२) पौरुषी,
(३) पूर्वार्ध (दो पौरुषी), (४) दिवस-चरिम,
(५) अभिग्रह। पहा नमुक्कार सहियं नमस्कारिका का सूचक सामान्य शब्द है। इसके स्थान में जो प्रत्याख्यान ग्रहण कर रकबा हो उसका नाम लेना चाहिए । जैसे कि पौरुषी रक्खी हो तो "पौरिसीपच्चरवाणकय" ऐसा कहना चाहिए। प्रत्याख्यान पालने के छह अंग बतलाये गये हैं, वे ये हैं(१) फासि-विधि पूर्वक प्रत्याख्यान लेना। (२) पालियं--प्रत्याख्यान को बार-बार उपयोग में लाकर सावधानी के साथ उसकी सतत रक्षा करना। (1) सोहियं-कोई दूषण लग जाये तो उसकी शीघ्र शुद्धि करना । (४) तीरियं-लिए हुए प्रत्याख्यान का समय पूरा हो जाने पर भी कुछ समय ठहर कर भोजन करना । (५) किट्टिय --लिए हुए प्रत्याख्यान का उत्कीर्तन करना कि मेरा प्रत्याख्यान भलीभांति पूर्ण हो गया है। (६) बाराहिम-सब दोषों से दूर रहते हुए माराधना करना। जं च न आराहियं इस प्रकार यदि शुद्ध आराधना न की हो तो आलोचना एवं प्रतिक्रमण करने से व्रत शुद्ध हो जाता है।