________________
६८] चरणानुयोग- २
साम को पूछकर के हो बाहार पानी लाने का विधान
वासायास पन्जोसवियार्थ अश्वेगहया एवं "जो दावे ते न पाते। एवं बातिए नो परिगाहित्तए । दसा. द.
1
भद पो सु. १२-१५
बिलानं पुच्छिता एवं महणा... १८७. बासावासं पज्जोसविधाणं नो वप्प निगंधाण वा निगीना परिसरास अए असणं वा पायाला साइमं वा डिमालिए।
कमाते ?
उ० – इच्छा परो अपरिणए भुजिज्जा इच्छा परो न निजा सा.द. ८ सु. ४८
r
--
कपद से अरपुसिा आयरिये या जाव-गणावच्छेययं वा जं वा पुरओ काउं विहरद्द,
विगह गहण जिसेहो
१८८ वासावासं पज्जोस बियाणं नो कप्पह निम्गंधाण वा निग्गंधीण या हट्टानं आरोग्याणं यलिय - सरीराचं अण्णबरीओबिओआहालिए। - दसा. द. सु. १६ आरिहि पुच्छिता एवं वियई गहन विहरणं १०. सारा थिए मिलू इच्छिन्मा अनादि आहारितए
आचार्य से पूछकर ही विकृति ग्रहण करने का विधान-१८६. वर्षावास में रहा हुआ भिक्षु किसी विषय का आहार करना चाहे तो आचार्य यावत् गणावच्छेदक अथवा जिसको
नो से कम्प अगापुसिा आपरियं वा नाव- गणबच्छेय अनुआ मानकर वह विनर रहा हो उन्हें पूछे बिना लेना नहीं
पुरोका बिर
कल्पता है ।
"इच्छामि न मते ! तुमेहिण समार विग हारिए तं एव वा एव वा ।" ते से परे एवं से कम्मर अणरि विगई महा रिसए ।
तेथ से नो वियरेखा, एवं से मरे कप्पइ अण्णयर बिगई आहारिए ।
९० - से किमा भंते!
उ०- आयरिमा परथवा जागंति ।
www.
वर्षावास रहे साधुओं में से किसी साधु को आचार्य इस प्रकार कहे कि "हे दन्त! आज तुम ग्लान साधु को आहार लाकर न दो और तुम स्वयं भी आहार ग्रहण न करो।" तो न देना कल्पता है और न स्वयं को ग्रहण करना कल्पता है । को ककर के हो आहार पानी लाने का विधान१८. वर्षावान रहे हुए निग्ध-निन्थियों को महान भिक्षु की सूचना के बिना या उसे पूछे बिना तन, पान, बाय स्वा ग्रहण करना नहीं कल्पत है।
ग्लाग
प्र० - हे भगवन् ऐसा क्यों कहा ?
उ०- म्लान की इच्छा हो तो यह अपरिशप्त ( बिना मंगाया हुआ) आहार भोगे, इच्छा न हो तो न भोगे ।
विकृति ग्रहण निषेध
१८८. वर्षावास रहे हुए हृष्ट-पुष्ट, निरोग एवं सशक्त शरीर वाले निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थियों को कोई भी विकृतियों का आहार करना नहीं कल्पता है ।
१०६-१०९
-
किन्तु आचार्य - यावत् - गणावच्छेदक अथवा जिसको अगुआ मानकर वह विचर रहा हो उन्हें पूछकर लेता कल्पता है । आता लेने के लिये भिक्षु इस प्रकार कहे
(घ) ठाणं० अ० ४ उ० १, सु० २७४ में ४ महाविगय का कथन है । (क) विकृति भक्षण पश्चिस नि० ० ४ ० २१
'हे भगवन् ! आपकी आज्ञा हो तो किसी विजय का आहार करना चाहता हूँ। वह भी इतने परिमाण में और इतनी बार ।" यदि वे आज्ञा दें तो किसी विगय का आहार करना करूपता है ।
यदि आज्ञा न दें तो किसी भी विगय का आहार करना नहीं कल्पता है।
प्र०-हे भगवन् ! ऐसा कहने का क्या कारण है? २० आचार्यादि जाने वाली विघ्न बाधाओं की जानते हैं।
दसा. द. सु. ६२
१ (क) तरुण अवस्था में विकृति ग्रहण का निषेध है परन्तु रुग्ण अवस्था में गुरु बादि की आशा लेकर विगय ग्रहण करना
कल्पता है ।
(ख) उत्त० ब० १७, गा० १५ में विगयभोजी को पापी श्रमण कहा है।
(ग) विकृति के नव प्रकार-ठाणं० अ० ६, सु० ६७४