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सूत्र १७७-१७६
वर्षावास में ग्लान हेतु गमन का क्षेत्र प्रमाण
संयमो जीवन
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(१) मयंसि वा,
(१) शरीर या उपकरण आदि के अपहरण का भय होने
(२) दुनिमक्खंसि वा,
(२) दुभिक्ष होने पर। (३) पायहेज या पं कोई,
(३) किसी के द्वारा व्यथित किये जाने पर (या ग्राम से
निकाल दिये जाने पर)। (४) बोघंसि वा एज्ममाणसि,
(४) बाढ़ आ जाने पर। (५) महता वा अणारिएहि (उबद्दबमाणेहि)।
(५) अनार्यों के द्वारा उपद्रव किये जाने पर। वासावासं पज्जोसवियाणं णो कप्पद पियंयाण था जिग्ग- वर्षावास में पर्युषण करने के बाद निग्रन्थ और निन्थियां योण वा गामागुगाम सूइज्जित्तए।
को ग्रामनुग्राम विहार करना नहीं कल्पता है। पंचहि ठा!हं कप्पर, तं जहा
किन्तु पाँच कारणों से बिहार करना कल्पता है । जैसे(१) णाणट्टयाए,
(१०वोग की पारित ने लिए। (२) दसणट्ठयाए,
(२) दर्शन-प्रभावक शास्त्र का अर्थ पाने के लिए। (३) परित्तट्टपाए,
(३) चारित्र की रक्षा के लिए। (४) आयरिए उवजताया वा से वीसुभेज्जा,
(४) आचार्य या उपाध्याय को मृत्यु हो जाने पर। (५) आयरिय-उवमायाण वा बहिया वावच्चं-करणयाए। (५) अन्यत्र रहे हुए आचार्य या उपाध्याय को वैयावृत्य
- ठाणं. अ. ५. उ. २, सु. ४१३ करने के लिए। वासावासे गिलाण? गमण खेत्तप्पमाणं --
वर्षावास में ग्लान हेतु गमन का क्षेत्र प्रमाण-- १७८. वासावासं पम्जोसरियाणं कप्पह निगाथाण वा, निग्गयोण?... वर्षावास रहे हए निर्ग्रन्थ-निर्गन्थियों को ग्लान के लिए
वा गिलाणहेज-जाब-सारि पंच जोयणाई गंतु पहिनि- चार पनि योजन तक जाकर लौट आना कल्पता है । यत्तए। अंतरा वि से कप्पा वस्थए,
मार्ग में रात्रि रहना भी वल्पता है, नो से कप्पहतं रयणि तत्थेव उवायणावितए।
किन्तु जहाँ जावे वहां रात रहना नहीं कल्पता है।
-दसा.द.८, सू.७५ पढम-बितीयपाउसंमि विहार करण पायच्छित्त सुत्ताई- प्रथम-द्वितीय प्रावृट् में विहार करने के प्रायश्चित्त सूत्र१७६. चे भिक्खू पहम पाउसम्मि गामाणगाम हाजइ, इज्जतं १७६. जो भिन्न प्रथम वर्षावास (संवत्सरी के पूर्व) में ग्रामानुग्राम वा साइजह।
विहार करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। जे भिक्खू वासावाससि पज्जोसवियंसि दुमड, चूइज्जत जो भिक्षु वर्षावास रहने पर (संवत्सरी के बाद) विहार वा साइम्मा।
करता है, करवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आवस्जद चाउम्मासियं परिहारट्टाणं अणुग्धाइये। उसे चातुर्माभिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
-नि. उ. १०, सु. ४०-४१ आता है।
१ बृहत्कल्प उद्दे० १, सु० ३५, की नियुत्ति, गा० २७३४ में वर्षावास दो प्रकार का कहा है---
(१) प्रावट और (२) वर्षांरात्र । श्रावण और भाद्रपद मास "प्रावृट्", आश्विन और कार्तिक मास "वर्षारा" कहे जाते हैं । निशीथ पूणि भाग ३, पृ०७७४ में भी यही कहा गया है। ठाणं. अ. ५, उ. २, सु ४१३, टीका पृ० ३०८ में वर्षाकाल के चार मास को प्रावट कहा है तथा प्रावट के दो भाग किए गए हैं। प्रथम प्रावृद्ध पचास दिन का, द्वितीय प्रावृटु सत्तर दिन का।