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घरणानुयोग
महर्षि के लक्षण
सूत्र ८१-८३
विरया वीरा समुट्ठिया, कोहाकायरियाइपीसणा। जो हिसा आदि से विरत है, क्रोध-माया आदि कषायों का पाणे ण हपति सव्वसो, पावाओ विरयाऽपिणियुग ।। विदारण करने के कारण वीर है और मोक्षमार्ग में उद्यत है । जो -सूय. सु. १, २, ७.१, गा. १२ मन-व-ग-काय से सर्वथा प्राणी हिमा से उपरत हैं. ने पापों से
रहित मुक्त जीवों के समान ही परिशान्त हैं। सीअरेग पडिदुगंछिणी, अपरिग्णस्स लवासविकणो।
जो साधु अचित्त जल से घृणा करता है, दुःसंकल्प या निदान सामाइपमा तस्स जं, जो गिहिमत्तेऽसर्फ न भुजह ।। नहीं करता है. बर्मबन्धन से दूर रहता है तथा जो गृहस्थ के -सूम. सु. १,अ. २, उ. २, गा.२० बर्तन में भोजन नहीं करता असे सर्वज्ञों ने सामायिक चारित्र
वान् अर्थात् संयमी कहा है । महेसिणं लक्खणाई
महर्षि के लक्षण८२. परोसहरिऊरता, धुपमोहा जिईदिया।
८२. परीषहरूपी शव ओं का दमन करने वाले, अजान का नाश सम्पयुक्खप्पहोणट्ठा, पक्यमंति महेसिणो ।।
करने वाले, जितेन्द्रिय, महर्षि मई दुःखों के नाश के लिए परा
-दस.अ. ३, गा.१३ क्रम करते हैं। मुणोणं लक्खणाई
मुनियों के लक्षण८३. अरिस्सं च है, कारवेसुंच है,
८३. मैंने क्रिया की थी, मैं श्रिया करवाता हूँ, मै क्रिया करने करओ पावि समणुणे मषिस्सामि। वाने का अनुमोदन करूगा । एपालि सवाति लोगसि,
समस्त लोक में कर्मबन्ध के हेतुभूत किमाएँ इतनी ही कम्मसमारंभा परिजाणियवा प्रवति ।। जाननी चाहिये। अपरिणायकम्मे खलु अयं पुरिसे, जो हमालो दिसाओ वा जो पुरुष क्रियाओं के यथार्थ स्वरूप को भलीभांति नही अणुविलाओ वा, अणुसंवरति, सध्याओ दिसाओ सय्वाओ जानता है, वह दिखाओं विदिशाओं में परिभ्रमण करता है, अणविसाओ सहेछ, अणेगरूवाओ जोणीओ संघति, विसवस्वे सभी दिशाओं विदिशाओं में कर्मों के माथ जाता है। अनेक फासे प.पडिसवेवयप्ति ।
प्रकार की जीवयोनियों को प्राप्त होता है। विविध प्रकार के
दुःखों का संवेदन करता है। तत्थ खलु भयवया परिण्णा पवेदिता।
कमबन्धन के कारणों के विषय में भगवान ने यह उपदेश
दिया है कि सांसारिक प्राणी-- इमस्स चेव जीवियस्स,
(१) वर्तमान जीवन निर्वाह के लिए, परिवंचण-मायण-पूयणाए;
(२) प्रशंसा, सम्मान व पूजा के लिए, जाइ-मरण-मोयणाए,
(३) जन्म मरण से मुक्त होने के लिए, दुक्खपडिग्यायहे।
(४) दुःख के प्रतिकार के लिए, पाप क्रियाएँ करते हैं। एताबसि सध्यावति लोगसि कम्मसमारंभा परिजाणियषा समस्त लोक में वे सभी कर्म समारम्भ जानने योग्य और भवति ।
त्यागने योग्य होते हैं। जस्सेते लोमंसि कम्मसमारंभा परिपणापा भवंति से हु मुणी लोक में ये जो कर्म समारम्भ हैं इन्हें जो जान लेता है और परिणाय-कम्मे ति बेमि ।
त्याग देता है, वह परिज्ञातकर्मा मुनि होता है। __ -आ. सु. १, अ. १, उ. १, सु. ४-६ एवं से उट्टिते ठितप्पा अणिहे अचले चले अहिलेस्से वह उत्थित, स्थितात्मा, स्नेह रहित, अविचल, चल, अध्यपरिवए।
यसाय को संयम से बाहर न ते जाने वाला मुनि अ तिवद्ध होकर संयम में विचरण करे ।
१ आदि मध्य तथा अन्त की क्रिया से यहाँ नव क्रियाएं समझनी चाहिए ।
१. मैंने क्रिया की थी, २. कराई थी, ३. अनुमोदन किया था, ४. मैं क्रिया करता हूँ, ५. कराता हूँ, ६. अनुमोदन करता हूँ, ७. मैं क्रिया करूंगा,
८. कराऊंगा, ६. करने वाले का अनुमोदन करूंगा, पांचवी और नौवी क्रिया का निर्देश सूत्र में हुआ है।