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सूत्र १३०-१३३
सत्रहवाँ 'अस्नान' स्थान
संयमी जीवन
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नो कप्पा निगंयाण या निधीण वा अंतरगिहसि, इमाई निर्ग्रन्थ और नियन्थियों को गृहस्थ के घर में भावना सहित पंच महम्बयाई समावणाई आइक्वित्तए वा, विभा वित्तए पांच महाव्रतों का कथन, अर्थ विस्तार या महाव्रताचरण के फल षा फिट्टित्तए वा पवेदसए था।
का कथन करना एवं विस्तृत विवेचन करना नहीं कल्पता है। मन्नत्य एगनाएण वा-जाव-एगसिलोएण वा।
किन्तु आवश्यक होने पर केवल एक उदाहरण -यावत्से विय ठिचा, नो व गं अडिच्चा।
एक श्लोक से कथन आदि करना कल्पता है। वह भी बड़े रह
-प. उ. ३, मु. २१-२३ कर किन्तु बैठकर नहीं । सत्तरसमं 'असिणाण' ठाणं -
सत्रहवाँ 'अस्नान' स्थान१३१. वाहिओ वा अरोगी वा, सिणाणं जो उ पत्थए ।
१३१. जो अस्वस्थ या स्वस्थ साधू स्नान करने की अभिलाषा बुक्कतो होइ आयारो, जढो हवइ संजमो ।। करता है उसके आचार का उल्लंघन होता है तथा उसका संयम
शिथिल हो जाता है। संतिमे सुहमा पाणा, घसरसु भिलुगासु य ।
पीली भूमि और दरार युक्त भूमि में अनेक प्रकार के सूक्ष्म जे उ भिक्षू सिणायतो, वियजेणुप्पिलाबए ।।
जीब होते हैं। भिक्षु के प्रासुक जल से स्नान करने पर भी उन
जीवों की जल में डूबने से विराधना अवश्य होती है। तम्हा ते न सिणायंति, सीएण उसिणेण वा।
इसलिए मुनि शीत या उष्ण अचित्त' जल से भी स्नान जायज्जीवं वयं घोर, असिणाणं महिङगा ।।
नहीं करते हैं वे जीवनपर्यन्त अस्नान रूप कठिन व्रत का पालन
करते हैं। सिणाणं अबुवा कक्क, सोद्धं पउमपाणि य ।
मुनि शरीर का उबटन करने के लिए सुगन्धित चूर्ण, कल्क, पायस्सुवटुणट्टाए. नाशि कयाः नि।
लोष गोवर आदि का प्रयोग कभी भी नहीं करते हैं ।
- दस.. ६, गा. ६१-६४ अट्ठारसमं 'अविभूसा' ठाणं..
अठारहवां अविभूषा' स्थान - १३२. नगिणस्स वा वि मुंडास, बीहरोम-नहंसिणो ।
१३२, मलिन एवं परिमित वस्त्र होने से नग्न, द्रव्य-भाव से मेहूगा उवसंतस्स, कि विमूसाए कारियं ॥
मुण्डित, दीर्घ-रोम और नग्लों वाले तथा मैथन से निवृत्त मुनि को विभूषा से क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कोई प्रयोजन नहीं
होता है। विभूसावत्तिय भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं।
विभूषा वृत्ति के द्वारा भिक्षु चिकने (गाढ़) कर्म का बन्धन संसारसायरे घोरे, जेणं पडई तुरुत्तरे ।।
करता है उससे वह दुस्तर और घोर संसार सागर में गिरता है। विभूसावत्तियं चेयं, बुद्धा मन्नति तारिसं।
तीर्थकर विभूषा के संकल्प को भी विभूषा प्रवृति के समान सावजबहल चेयं, नेयं साईहि सेवियं ।।
ही मानते हैं यह विभूषा वृत्ति प्रचुर पाप का कारण है अत: -दस. अ. ६, गा, ६५-६७ छहकाय के रक्षक मुनि इसका सेवन नहीं करते हैं।
संयमी जीवन का फल
सव्वगुण सम्पन्नयाए फल
सर्व गुण सम्पन्नता का फल१३३. ५०-सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते । जीये कि जणयह ? १३३. प्राभन्ते ! सर्वगुण-पम्पन्नता से जीव क्या प्राप्त
करता है? उ०-सब्वगुणसंपन्नवाए गं अपुण राबत्ति जणथइ । अपुग- उल-मर्वगुण सम्पन्नता से वह अपुनरावृत्ति अर्थात् मुक्ति
राबत्ति पत्तए ण जीवे सारीरमाणसाणं शुक्खाण मो को प्राप्त होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त करने वाला जीव भागो भबड़।
-उत्त. ब. २६, गा. ४६ शारीरिक और मानसिक दुःमों का भागी नहीं होता।