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चरणानुयोग-२
गृहस्थों की बेयावत्य का तथा धन्दन पूजन की चाहना का निषेध
सूत्र १०२-१०६
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अमज्जमंसासि अमच्छरीया, अभिक्षणं निषिगई गओ य। गाधु मद्य. मांस और मत्स्य का अभोजी हो, बार-बार दूध अभिक्खणं काउस्सगकारी, सज्मायजोगे पथओ हवेज्जा । दही आदि विगयों को रोका न करने वाला हो, बार-बार कायो
त्यर्ग करने वाला और स्वाध्याय की प्रवृत्तियों में प्रयत्नशील हो। नं पडिप्रवेज्जा सयणाऽसणाई. सेज्ज निसेज्जतह भत्तपाणं । भिक्षु शयन, आसन, शय्या, निषगा नया आहार पानी में गामे कुले वा नगरे व देसे, ममत्तमावं न कहिं चि कुज्जा ॥ आमक्तिपूनम कोई प्रतिज्ञा न करे और ग्राम, नगर तथा देश
दरा, अ. १०, नू. २, गा. ७.८ में श्रद्धाल घरों में कहीं भी ममत्व भाषन पारे । गिहत्याण वेयावडियं तह बंदण पूयण कामणाणिसेहो- गृहस्थों की वैयावृत्य का तया वन्दन पूजन की चाहना
का निषेध१०३. सचं जगं तु समयाणुपेहो,
१०३. साधु समस्त जगत को समभाव से देने। वह किसी का पियमपियं कस्सइ नो करेज्जा। भी प्रिय या अप्रिय न करे। कोई साधक प्रजित होकर भी सट्ठाय दोणे तु पुणो विसणे,
परीषहों एवं उपसर्गों की बाधा आने पर दीन और चिन्न हो संपूयणं चैव सिलोयकामी॥ जाते है और कोई-कोई अगनी प्रमोसा व पूजा के अभिलाषी बन
-सूय. गु. १. अ. १०, मा. ५ जाते हैं (किन्तु साधक को गंगा नहीं करना चाहिये ।) गिहिणो वेयावडियं न कुरुजा, अभिवायण वंदण पूयणं च। माधु गहस्थ वा वैयावृत्य न करे, अभिवादन वन्दन और असंकिलिठेहि सम इसेज्जा, मुणी चरित्तस्स जभी ने हाणी। पूजन न बारे । मुनि संक्लेशरहित साधुओं के साथ रहे जिससे
-वस. चू २. गा कि नारिप बी हानि न हो। इस्त्रियं पुरिसं वा बि, डहर वा महल्लगं ।
वन्दना करते समय किसी भी स्त्री या पुरुष से, बानक या चवमाणे न जाएज्जा, नो व णं, फरसं वए । वृद्ध से साधु याचना न करे और आहार न देने वाले गृहस्थ को
कठोर वयन भी न कहे । जेन बंदे न से कुप्पे, बंदिओ न समुक्कसे ।
जो वन्दना न करे उस पर कोप नवरे, बन्दना करने पर एवमन्नेसमाणस्स सामणमणुचिदई ।।
गवं न करे । इस प्रकार अन्वेषण करने वाले मुनि का श्रामण्य - दस. अ. ५, उ, २, गा. २६-३० भाव अखण्ड रहता है। अपचण रयणं नव वन्दणं पूर्वणं तहा।
मुनि अर्चना. रत्ता (अनन भोती आदि का स्वस्तिका इड्ढीसरकारसम्माणं मणसा वि न पत्थए ।
बनाना) बन्दना, पूजा, ऋद्धि, सकार और राम्मान को मन से
--उत्त. अ. ३५, गा. १८ भी न चाहे । अहिगरण णिसेहो
अधिकरण विवर्जन-- १०४. अगिरण करस्स भिक्खुणो, ययमाणस्स पासज्ज दारुणं । १०४. कलह करने वाले तथा कलहयश भयंकर कठोर वचन अटु परिहायती हू. अहिरणं न करेज पंडिए॥ बोलने वाले भिा का बहुत संयग' नष्ट हो जाता है। अतः
-सूय सु. १, अ. २, उ. २, गा १६ पंडित मुनि कभी भी बनहग करे । कलहकारगो पावसमणो
कलहप्रिय-पाप श्रमण . . १०५. विवादं च उदोरेइ, अहम्मे अत्तपन्नहा । १०५. जो शान्त हुए विवाद को पुनः उत्तेजित करता है, जो बुग्गहे कलहे रत्ते, पावसम्णे ति बुच्चद ।। सदाचार रहित है, जो कुतों द्वारा अपनी बुद्धि को मलिन
उत्तअ. १७, गा.१२ करता है, जो कदाग्रह और कलह में प्रवृत्त रहता है वह पाप
श्रमण कहलाता है। परीसहजय उबएसो
परीषहजय का उपदेश - १०६. भरति रति च अभिभूय भिक्सू, तणाइफासं सह सोतफासं। १.६. भिक्ष अरति और रति परोपह को जीते, तृण आदि का उहं च दंसं च हियासएज्जा, सुबिभ घ दुमि च तितिक्माएजा ॥ स्पर्श तथा रार्दो गरमी के मार्श और मकर आदि के दंश की
—सूय. सु. १, अ. १०, गा. १४ महे । सुगन्ध और दुर्गन्ध में समभाव रखे।