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३६) चरणानुयौन-२
निर्णयस्य सुहसेाओ
२७. साराओ पन्नताओ, तं जहा
१.
निर्धन्य को सुख सम्याएं
निर्भय की सुख शय्याएँ
१७. सुखशय्या चार हैं
परमा
(१) पहली सुखवय्या यह है
सेना नारियं पय्वग्गिं कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अनार से अनगारत्व में प्रव्रजित urana frried तिहोकर निन्नन में निशांक, निष्कांस, निविपिति अभेद समापन, अकलुषसमापन्न होकर निर्ग्रन्थ प्रबचन में बढ़ा करता है. प्रतीति करता है। रुचि करता है। वह नित्य प्रवचन में श्रद्धा करता हुआ, प्रतीति करता हुआ, रुचि करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है । (२) दुसरीला वह है
भाषणे णो कलुससमावण्णे णिगंध पावयणं सगृह पत्तियह रोति, जिग्ये पावयणं सद्दह्माणे पत्तियमाणे रोएमाणे णो मगं चावयं नियच्छति णो विणिघातमावज्जति पढमा सुहसेज्जा ।
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२.हा-
सेणं मुळे भविता मगाराओ अगवारियं पवईएसए लाभेणं तुरसति परस्स लाभं जो बाताइति णो पोहेति णो परमेड गो अभिसरति, परम्स लाभमणासाएमा अपना अपरबेमाथे अणमिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, णो विणिपातमायजति रोना मुहमेजा।
२. अहावरा सच्चा सुहसेज्जा
से णं मुण्डे भविता नगारामो अगवारियं पयइए विक मापस्सए कामभोगे जो आसाएति णो पोहेति जो पश्यति णो अभिलसति दिव्वमाणुस्साए कामभोगे अणासाएमाणे अपत्येमाणे अणभिलसमाणे णो मणं उच्चावयं नियच्छति, मी वाजत-गुजर
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४. अहावरा -
सेवता जगाराओ अनगारि पए तरस एवं अहंता तो हट्टा अरोगाला कल्ससरीरा अण्णय राई ओरालाई करुलाणाई विजलाई पयपहिला महाणुभामा कम्मलकरणाई तबोमा पति अहं अग्मोषमिवक्कयिं वेय जो सम्म सहामि खमामि तितिषखेमि अहिया सेमि ?
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ममं च गं अम्भोग मिओषरक मियं सम्ममसहमाणस्स अक्खममाणस्स अतितिखेमाणस्स अमहिया सेमाणस्स कि मण्णे कति ?
एगंतसो मे पाये कम्मे अति ममं च णं अग्मोयगमिरे arकमियं सम्म सहभागस्स सममाणस्स तितिक्ले मागस्स यमाणस्स कि मध्ये कति ?
एवंतसो मे गिज्जरा कज्जति उत्पा सुहसेज्जा ।
सूत्र १७
- ठाणं. अ. ४, उ. ३. सु. ३२५
कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्व में प्रवजित होकर अपने लाभ से सन्तुष्ट होता है, दूसरे के लाभ का आस्वा दन नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह दूसरे के लाभ का आस्वादन नहीं करता हुआ पहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है ।
(३)यह है
कोई व्यक्ति मुण्ड होकर अगार से अनगारत्य में प्रवजित होकर देवों तथा मनुष्यों के काम दोनों का आस्वाद नहीं करता, स्पृहा नहीं करता, प्रार्थना नहीं करता, अभिलाषा नहीं करता, वह उनका आस्वाद नहीं करता हुआ, स्पृहा नहीं करता हुआ, प्रार्थना नहीं करता हुआ, अभिलाषा नहीं करता हुआ मन में समता को धारण करता है और धर्म में स्थिर हो जाता है। (४) चौधी सुखशय्या यह है
कोई व्यक्ति मुण्ड होकर जगार से अनगारत्व में प्रव्रजित होने के बाद ऐसा सोचता है-जय भगवान हृष्ट नीरोग, बलवान तथा स्वस्थ होकर भी कर्मक्षय के लिए उदार, कल्याण, विगुन, सुसंगत प्रगृहीत सादर स्वीकृति महानुभाग –श्रमेय तिलानी और कर्मकारी विचित्र तपस्याएँ स्वीकृत करते हैं तब मैं आभ्युपगकी तथा ओनिकी वेदना को ठीक प्रकार से क्यों न सहन करता हूँ ।
यदि मैं आभ्युपगमिकी तथा औपकमिको वेदना को ठीक प्रकार से सहन नहीं करूँगा तो मुझे क्या होगा ?
मुझे एकान्ततः पाप कर्म होगा यदि मैं मानविकी और औपकमिकी वेदना को ठीक प्रकार से सहन सरूंगा तो मुझे क्या होगा ?
मुझे एकान्तः निर्जरा होगी ।