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सूत्र ७९-८०
स्थागी बरयानी के लक्षण
एस्य वि भिक्खु अणुभए, नावणए दंते, दबिए बोegere. संविचीय विश्यब्वे परीसहोम अपयोगद्वारा दिए डिप्पा संाए पर दत्तमो भलिब
विवि-गे एनवि बुडे निमो सुसंजते सुसमिए सुसामाइए, आयवायपत्ते, विक तो ये जो पासवार लामट्ठी धम्मट्टी, धम्मविक, नियागपडिवण्णे, संमियं चरे, दंते, दबिए पनि
से एवमेव जानह जगहंभयंता बेनि
- सू. सु. १, अ. १६, सु. ६३२-६३७
चाई अचाई लक्खणं७६. षत्यगंधकार, हरपीओ सयाणि य । अच्छंवा जे न मुंजंति न से "घाइ" ति बुच ॥
पिएमएस व पिकुम्बई। साहब से
४
बद ॥
- दस. अ. २, मा. २-३
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ये ''ऐसे समझे जाये जो निराभिमान हो किन्तु हीन भावनाओं से न हो, से, मोदागमन योग्य हो, कायममत्वरहित हो, नाना प्रकार के परोयहाँ और उपसदों को
संयमी जीवन २१
भावपूर्वक सहने वाला हो, अध्यात्मयोग से जिसका चारित्र शुद्ध हो, जो सच्चारित्र-प्रासन में उद्यत हो, जिसकी आत्मा शुद्ध भाव में स्थित हो, संसार की असारता जानता हो तथा जो परदन्तभोजी हो वह 'भिक्षु' कहे जाने योग्य है ।
थे 'निन्थ' ऐसे समझे नाय जो अकेला हो, जो एकवेत्ता हो, जो तत्वज्ञ हो, जिसने आस्रवों को रोक दिया हो, जो सुसंगत हो, जो पाँचों समितियों से युक्त हो, सम्भाव वाला हो, जो आत्म स्वरूप का ज्ञाता हो, जो विद्वान हो, जो द्रव्य और भाव दानों प्रकार से इन्द्रियों का संयम करने वाला हो, जो पूजा सत्कार एवं द्रव्यादि के लाभ का अभिलाषी नहीं हो, जो धर्मार्थी और धर्मवेत्ता हो जिसने मोक्षमार्ग को सद प्रकार से स्वीकार कर लिया हो, जो सम्यग् आचरण करने वाला हो, वह दमितेन्द्रिय, मोक्षगमन के योग्य और शरीर के ममरन से रहित 'निर्मन्थ' कहे जाने योग्य है।
इसे ऐसा ही जातो जो मैंने भगवान सेना है
त्यागी - अत्यागी के लक्षण
७१. जो व्यक्ति परवण होने से या रोगादिग्रस्त होने से वस्त्र, बन्ध, अलंकार का तथा स्त्रियों का एवं पय्याओं का उपभोग नहीं करता, वह त्यागी नहीं कहलाता है ।
किन्तु जो कान्त और प्रिय भोग उपलब्ध होने पर उनकी ओर से पीठ फेर लेता है अर्थात् स्वेच्छा से भोगों का त्याग करता है वही त्यागी बहलाता है।
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सुसाधु के लक्षण
८०.
सुसरहु लक्खणाई८०. एवं से संजते विमुनिरिव निम्ममे निन्नेह-बंधणे. साप । वविरए । मासी मंद-समये
पूर्वोक्त अपरिग्रहवती नंयमी साधु धन-धान्यादि का त्यागी आसक्ति रहित, अपरिग्रह में रुचि वाला, ममत्व रहित स्नेह सम-त-प-बन्धन से मुक्त, समस्त पापों से निवृत कुल्हाड़ी से काटे जाने समे मरणावमाणणाए समिबरए, समितरागदोते, समिए समिती सम्मविट्ठी रामे यजे सम्यपाण-भूते "समणे" सुधारए उज्जुए संजए सुसाहू ।
से
पर या चन्दन से चर्चित करने पर समबुद्धि रखने वाला, तृण, मणि, मुसा मिट्टी के क्षेते और सोने में सामान रखने वाला सम्मान और अपमान में समता का धारक, पाप कर्म रूपी रज की शान्त करने वालो अथवा राग-द्वेष को शान्त करने वाला, पाँच समितियों से युक्त, सम्यग्दृष्टि और सब जीवों पर समभाव रखने वाला है, वही श्रमण है, श्रुत धारक है, सरल है, संगत है। जर है।
वह साधु समस्त प्राणियों के लिए शरणभूत है, समस्त
है के किनारे पर स्थित है, भवपरम्परा को नष्ट करने वाला है, निरन्तर होने वाले बाल मरण का पारगामी है और सब संशयों से रहित होगया है ।
सच्चभागा य
सरणं सम्भूयनं, सम्बजवच्छ संसार म संसार-समुछिने सततं मरणापार जगतीं जीवों का हितैषी है पारगे य सवेसि संसयागं ।