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चरणानुयोग – २१
पणमामा हिम्मती
भवति ।
साधु के लक्षण
अमय महणे,
अम्मितर बाहिरंमि समा तवोवहाणंमि य सुजुत्ते, खते, निरते ।
चाई, लग्ने, तबस्सी, अणियाणे, अवहिल्लेसे, अममे, लेवे ।
इरियासगिए, भालासमिए, एसमासमिए, जापान-मंत्र-य- ईर्यासमिति, भाषासमिति एषणासमिति, आदान- भाण्डविशेवणसलिए उपचारपाया-परि-मात्र-निक्षेपणासमिति और मल-मूत्र कफ-नासिकामल रमल जियासमिए मण वयसुशे, कायगुत्ते, गुसिदिए. गुल आदि के परिष्ठापना समिति से युक्त, मनोगुप्ति, वचन गुप्ति बंजयारी। और कामगुप्ति से युक्त, इन्द्रियों का गोपन करने वाला, ब्रह्मचर्यं की सुरक्षा करने वाला,
लिलिदिए
अचिणं, छिन्नगंथे, निरुव - सु. २, अ. ५.१
| अरिमाह-संडे व समारंभ परिहानी विरते, विरले कोमामादा-लोभा
एगे अंसज मे - जाब- तेत्तीसा आसायणा एक्कावियं करेशा एस्कुराए हिडाए तो ये तिमाहिया विरतिपणिही अविरतीसु य एवमाइएसु बहस ठाणेसु जिण पसत्येसु, अतिसु सासयभावेषु अवट्टिएम संक कंखं निश करेला सदहए सासणं भगवओ अणियाणे अगार अनु अमूह-मण-वयण कायते । पण्ह. सु. २, अ. ५, सु. १
पंच
गावाने एमरा बिए जिलपरी ओवि सत्शिाचिस मीसके विराग संपात विरए मुझे सह निश्यक जीविय - मरणास विध्यमुक्के, निस्संधं निवणं चरिते धीरे कारणं फासयंते, अप्पम्भाणडुसे निहुए, एगे घरेज्ज धम्मम - पण्ह. सु. २, अ. ५, सु. ११
सूत्र
भिषणाई
६१.
साहो भवेया । इस्थीण वसं न मावि गच्छे, वंतं नो पडियाय जे स भिक्खू ।।
जो आठ प्रवचनमाताओं के द्वारा गाठ कर्मों की ग्रन्थि को
नष्ट करने वाला है, आठ जो स्वसमय में निष्णात है। रामान रहता है ।
मदों का मयन करने वाला है और वह सुख दुःख दोनों अवस्थाओं में
आभ्यन्तर और बाह्य तप रूप उपधान में सम्यक् प्रकार से सदा उद्यत रहता है। क्षमावान् इन्द्रियविजेता, स्व पर हित में सलग्न रहता है ।
परिईयागी, पाप से लज्जा करने वाला, धन्य, तपस्वी क्षमागुण के कारण सहनशील, जितेन्द्रिय सद्गुणों से सुत निदान से रहित, परिणामों को संयम परिधि से बाहर न जाने देने वाला, अभिमानसूचक शब्दों से रहित सम्पूर्ण रूप से द्रव्य रहित, स्नेह बन्धन को काटने वाला और कर्म के उपलेप से रहित होता है ।
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हे जम्मू अपरिह से संत अपग बारम्भ परिग्रह से विरत होता है, क्रोध, मान, माया, लोभ से विरत होता है, एक प्रकार का असंयम यावत्-तेत्तीस प्रकार की असातना इस प्रकार एक से लेकर तेतीस संख्या तक के स्थानों में हिंसा आदि आस्रव स्थानों और संयम स्थानों में जो कि जिनेन्द्र भगवान के द्वारा उपदिष्ट, शाश्वत, अवस्थित भाव है उन में शंका कांक्षा को दूर करके भगवान के शासन में शुद्ध श्रद्धा रखता है। निदान रहित, गर्न रहित, आसक्ति रहित और मूढ़ता रहित होकर मन वचन काया को गुप्त रखता है।
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वह अनगार, गाँवों में एक रात्रि और नगरों में पांच रात्रि तक निवास करने वाला जितेन्द्रिय परीयों को जीतने वाला निर्भय, विद्वान समिति और वियों में मान, संग्रह से विरत, मुक्त, परिग्रह के भार से हल्का, आकांक्षा रहित जीवन मरण की आशा से मुक्त, संधि और व्रण रूप दोष से रहित चारित्र वाला, धैर्यवान्, शरीर से चारित्र का पालन करने वाला, सदा अध्यात्म ध्यान से युक्त, उपशान्त, अकेला अर्थात् रागीय रहित होकर धर्म का आचरण करे ।
भिक्षु के लक्षण
८१. ओकर के उपदेश से संयम ग्रहण कर सदा प्रति वाला होता है, जो स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता है, जो व्यक्त भोगों का पुनः सेवन नहीं करता है, वह भिक्षु है ।