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सूत्र ६२-६५
संयम का स्वरूप
संयमी जोबन
[११
(२) संयमी जीवन
संयम का स्वरूप--१
संजम सरूवं
संयम का स्वरूप६२. एगमो विरई कुज्जा, एगओय पवत्तमं ।
६२. भिक्षु को एक स्थान से निवृत्ति और एक स्थान में प्रवृत्ति असंजमे नियति च, संजमे ८ पवत्तणं ॥
करनी चाहिए अर्थात् असंयम से निवृत्ति और संयन में प्रवृत्ति
-उत्त. अ. ३१, गा, २ करनी चाहिए। संजमस्स महत्तं
संयम का महत्व६३. मासे मासे तु जो बालो, कुस्सगेणं तु मुंजए।
६३. अज्ञानी जीव एक-एक मास की तपश्चर्या के पारणे में न को सुअक्खायधम्मस्त, कलं अग्घद सोलसि ॥
कुशाग्र जितना आहार करे तो भी सर्वज्ञ-प्ररूपित चारित्रधर्म -उत्त. अ., गा. ४४ की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं होता।
संयम के प्रकार-२
पंच चरिता, चरित-परिभासा य
पांच प्रकार के चारित्र और उनकी परिभाषा
६४. (चारित्र पाँच प्रकार के हैं) ६४. सामाइयस्य पदम, छेओवट्ठावणं भवे दीयं ।
१. पहला-सामायिक, २. दूसरा छेदोपस्थापनीय परिहारविसुशीयं, सुहम तह संपरायं च ॥
२. तीसरा-परिहार-विशुद्धि, ४. चौथा-सूक्ष्म-संपराय, अकसायं अहसखायं छउमस्थरस जिणस्त था।
५. पांचा-यथाख्यात-चारित्र-कषाय रहित होता है। वह
छमस्थ और केवली दोनों को होता है। एवं चरितकर, चारितं होद आहियं ।।
ये सभी बारित्र कर्म संचय को रिक्त (खाली) करते हैं, इस. -उत्त. अ.२८, गा. ३२-३३ लिए ये चारित्र कहे जाते हैं । छब्धिहा कप्पद्विती
छह प्रकार की कल्पस्थिति६५. छबिहा कप्पद्विती पण्णता, तं जहा
६५. कल्प की स्थिति छह प्रकार की कही गई है । जैसे(१) सामाइथसंजयकप्पट्टिती,
१. सामायिक चारित्र की मर्यादाएँ। (२) छेओवट्ठावणियसंजयकरपट्टितो,
२. छेदोपस्थापनीय चारित्र (बड़ी दीक्षा के बाद) की मयी
दाएँ। (३) णिविसमाण कप्पद्विती,
३. परिहारविशुद्धि चारित्र में तप वहन करने वालों की
मर्यादाएँ। (४) णिस्विटुकास्य कप्पद्विती,
४. परिहारविशुद्धि चारित्र में गुरुकल्प तथा अनुपरिहारिक
भिक्षुओं की मर्यादाएं। (५) जिणकप्पद्विती,
५. गच्छ निर्गत विशिष्ट तपस्वी जीवन बिताने वाले जिन
कल्पी भिक्षुओं की मर्यादाएँ । (६) बेरकप्पट्टितो।। ___ ---कप्प, ज. ६, सु. २० . स्थविर-कल्पी अर्थात् गच्छवासी भिक्षुओं की मर्यादाएँ।
१ ठाणं. अ. ६, सु. ५३० ।